Advertisement

जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें

जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें

जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली हम लोगों ने इश्क़ ईजाद किया
कभी शहर-ए-बुताँ में ख़राब फिरे कभी दश्त-ए-जुनूँ आबाद किया

कभी बस्तियाँ बन कभी कोह-ओ-दमन रहा कितने दिनों यही जी का चलन
जहाँ हुस्न मिला वहाँ बैठ रहे जहाँ प्यार मिला वहाँ साद किया

Advertisement

शब-ए-माह में जब भी ये दर्द उठा कभी बैत कहे लिखी चाँद-नगर
कभी कोह से जा सर फोड़ मरे कभी क़ैस को जा उस्ताद किया

यही इश्क़ बिल-आख़िर रोग बना कि है चाह के साथ बजोग बना
जिसे बनना था ऐश वो सोग बना बड़ा मन के नगर में फ़साद किया

Advertisement

अब क़ुर्बत-ओ-सोहबत-ए-यार कहाँ लब ओ आरिज़ ओ ज़ुल्फ़ ओ कनार कहाँ
अब अपना भी ‘मीर’ सा आलम है टुक देख लिया जी शाद किया

जल्वा-नुमाई बे-परवाई हाँ यही रीत जहाँ की है – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें की ग़ज़लें

जल्वा-नुमाई बे-परवाई हाँ यही रीत जहाँ की है
कब कोई लड़की मन का दरीचा खोल के बाहर झाँकी है

Advertisement

आज मगर इक नार को देखा जाने ये नार कहाँ की है
मिस्र की मूरत चीन की गुड़िया देवी हिन्दोस्ताँ की है

मुख पर रूप से धूप का आलम बाल अँधेरी शब की मिसाल
आँख नशीली बात रसीली चाल बला की बाँकी है

‘इंशा’-जी उसे रोक के पूछें तुम को तो मुफ़्त मिला है हुस्न
किस लिए फिर बाज़ार-ए-वफ़ा में तुम ने ये जिंस गिराँ की है

Advertisement

एक ज़रा सा गोशा दे दो अपने पास जहाँ से दूर
इस बस्ती में हम लोगों को हाजत एक मकाँ की है

अहल-ए-ख़िरद तादीब की ख़ातिर पाथर ले ले आ पहुँचे
जब कभी हम ने शहर-ए-ग़ज़ल में दिल की बात बयाँ की है

मुल्कों मुल्कों शहरों शहरों जोगी बन कर घूमा कौन
क़र्या-ब-क़र्या सहरा-ब-सहरा ख़ाक ये किस ने फाँकी है

हम से जिस के तौर हों बाबा देखोगे दो एक ही और
कहने को तो शहर-ए-कराची बस्ती दिल-ज़दगाँ की है

Advertisement

Leave a Reply