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हम जंगल के जोगी हम को – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें

हम जंगल के जोगी हम को – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें की ग़ज़लें

हम जंगल के जोगी हम को एक जगह आराम कहाँ
आज यहाँ कल और नगर में सुब्ह कहाँ और शाम कहाँ

हम से भी पीत की बात करो कुछ हम से भी लोगो प्यार करो
तुम तो परेशाँ हो भी सकोगे हम को यहाँ पे दवाम कहाँ

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साँझ-समय कुछ तारे निकले पल-भर चमके डूब गए
अम्बर अम्बर ढूँढ रहा है अब उन्हें माह-ए-तमाम कहाँ

दिल पे जो बीते सह लेते हैं अपनी ज़बाँ में कह लेते हैं
‘इंशा’-जी हम लोग कहाँ और ‘मीर’ का रंग-ए-कलाम कहाँ

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दिल किस के तसव्वुर में जाने रातों को – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें की ग़ज़लें

दिल किस के तसव्वुर में जाने रातों को परेशाँ होता है
ये हुस्न-ए-तलब की बात नहीं होता है मिरी जाँ होता है

हम तेरी सिखाई मंतिक़ से अपने को तो समझा लेते हैं
इक ख़ार खटकता रहता है सीने में जो पिन्हाँ होता है

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फिर उन की गली में पहुँचेगा फिर सहव का सज्दा कर लेगा
इस दिल पे भरोसा कौन करे हर रोज़ मुसलमाँ होता है

वो दर्द कि उस ने छीन लिया वो दर्द कि उस की बख़्शिश था
तन्हाई की रातों में ‘इंशा’ अब भी मिरा मेहमाँ होता है

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