इस शहर के लोगों पे ख़त्म सही – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें
इस शहर के लोगों पे ख़त्म सही ख़ु-तलअ’ती-ओ-गुल-पैरहनी
मिरे दिल की तो प्यास कभी न बुझी मिरे जी की तो बात कभी न बनी
अभी कल ही की बात है जान-ए-जहाँ यहाँ फ़ील के फ़ील थे शोर-कुनाँ
अब नारा-ए-इश्क़ न ज़र्ब-ए-फ़ुग़ाँ गए कौन नगर वो वफ़ा के धनी
कोई और भी मोरिद-ए-लुत्फ़ हुआ मिली अहल-ए-हवस को हवस की सज़ा
तिरे शहर में थे हमीं अहल-ए-वफ़ा मिली एक हमीं को जला-वतनी
ये तो सच है कि हम तुझे पा न सके तिरी याद भी जी से भुला न सके
तिरा दाग़ है दिल में चराग़-ए-सिफ़त तिरे नाम की ज़ेब-ए-गुलू-कफ़नी
तुम सख़्ती-ए-राह का ग़म न करो हर दौर की राह में हम-सफ़रो
जहाँ दश्त-ए-ख़िज़ाँ वहीं वादी-ए-गुल जहाँ धूप कड़ी वहाँ छाँव घनी
इस इश्क़ के दर्द की कौन दवा मगर एक वज़ीफ़ा है एक दुआ
पढ़ो ‘मीर’-ओ-‘कबीर’ के बैत कबित सुनो शे’र-ए-‘नज़ीर’ फ़क़ीर-ओ-ग़नी
सावन-भादों साठ ही दिन हैं – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें की ग़ज़लें
सावन-भादों साठ ही दिन हैं फिर वो रुत की बात कहाँ
अपने अश्क मुसलसल बरसें अपनी-सी बरसात कहाँ
चाँद ने क्या-क्या मंज़िल कर ली निकला, चमका, डूब गया
हम जो आँख झपक लें सो लें ऎ दिल हमको रात कहाँ
पीत का कारोबार बहुत है अब तो और भी फैल चला
और जो काम जहाँ को देखें, फुरसत दे हालात कहाँ
क़ैस का नाम सुना ही होगा हमसे भी मुलाक़ात करो
इश्क़ो-जुनूँ की मंज़िल मुश्किल सबकी ये औक़ात कहाँ