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“वह”

  1. वह

वह

हर दिन आता

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सोचता

बडबडाता,घबडाता

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कभी मस्त होकर

प्रफुल्लताकोमलता से

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सुमधुर गाता

न भूख से ही आकुल

न ही दुःख से व्याकुल

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महान वैचारक

धैर्य का परिचायक

विकट संवेदनाएँ

गंभीर विडंबनाएँ

कुछ सूझते ध्यान में पद,

संभलताबढाता पग !

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होकर एक दिन विस्मित्

किछ दया दूँ अकिंचित्

इससे पहले ही सोचकर

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कहाजाने क्या संभलकर

लुटतीटुटती ह्रदय दीनों की

नष्ट होती स्वत्व संपदा सारी

मुझे क्या कुछ देगी

ये व्यस्तअभ्यस्त दुनिया भिखारी !

लुट चुके अन्यान्य साधन

टुट चुके सभ्य संसाधन

आज जल भी जल’ रहा है-

ये प्राणवायु भी क्या रहा है ?

आपदा की भेंट से संकुचित

विपदा की ओट से कुंठित

वायु – जल ही एक बची है-

उस पर भी टूट मची है |

ह्रदय की वेदनाएँ

चिंतित चेतनाएँ

बाध्य करती गरल’ पीने को

हो मस्त सरल’ जीने को

करता हुँ सत्कार,

हर महानता है स्वीकार;

परदुःखित है विचार

न चाहिए किसी से उपकार|

दया-धर्म की बात है,

किस कर्म की यह घात है

उर’ विच्छेद कर विभूति लाते; ‘जन’ क्यों ऐसी सहानुभूति दिखाते ?

हर गये जीवन के हर विकल्प,

रह गये अंतिम सत्य-संकल्प !

लेता प्रकृति के वायु-जल

नहीं विशुद्ध न ही निश्छल

न हार की ही चाहत

न जीत की है आहट

विचारों में खोता

घंटों ना सोता

अचानक-

तनिक सी चिल्लाहट

अधरों की मुस्कुराहट

न सुख की है आशा

न दुःख की निराशा

समय-समय की कहानी

नहीं कहता निज वाणी,

अब हो चुके दुःखित बहु प्राणी;

होती पल-पल की हानी |

न जाने कब की मिट चुकी आकांक्षाएँ,

साथ ही संपदाएँ और विपदाएँ|

दुनिया ने हटा दी-

अस्तित्व ही मिटा दी

सोचा ! कुछ करूँ

जिऊँ या मरूँ ?

कुछ सोच कर संभला था,

लेकिन बहुत कष्ट मिला था

कारूणिक दृश्य देखकर

ह्रदय से विचार कर

कहा – “भाग्य-विधाता

निर्धन को दाता

मुझे ना कुछ चाहिए

पर

व्रती धन्य

अनाथों को क्यों सताता ?

यह सुनकर मैं बोला 

स्तब्धित मुख को खोला

ये अब दुनिया की रीत है

स्वार्थ भर की प्रीत है

समझते जन’ जिसे अभिन्न

वही करते ह्रदय विछिन्न !

नहीं जग महात्माओं को पुजता

वीरों को भला अब कौन पुछता

पीडितों के प्राण हित-

मैं भी प्रतिपल जिया करता हूँ

उर’ में गरल’ पीया करता

हूँ !

अंतर्द्वन्द से क्षणिक देख

पहचान ! जान सुरत निरेख !

अखंड भारत अमर रहे !

©

कवि आलोक पान्डेय

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