उस दिन रविवार था। दीनबंधु एंड्रयूज से मिलने के लिए एक ईसाई सज्जन सवेरे जल्दी ही आ पहुंचे। परस्पर बातें होने लगीं। बातें करते समय एंड्रयूज ने अपने हाथ में बंधी घड़ी की ओर देखा। उस समय 10 बजे थे। एंड्रयूज ने उन सज्जन से क्षमा याचना करते हुए कहा, ‘माफ कीजिएगा, मुझे चर्च जाना है।’
वह सज्जन बोले, ‘जाना तो मुझे भी है। चलो, दोनों का संग रहेगा तो अच्छा हीे है।’
एंड्रयूज बोले, ‘लेकिन मैं उस चर्च में नहीं जा रहा।’
‘तो फिर कहां जाएंगे?’ उन सज्जन ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।
एंड्रयूज मुस्कराए, उन सज्जन को साथ लिया और एक हरिजन बस्ती में पहुंचकर टूटी फूटी झोंपड़ी में गए। उस झोंपड़ी में एक वृद्ध चारपाई पर लेटे एक बालक की सेवा कर रहा था।
एंड्रयूज ने उनसे पंखा लेते हुए कहा, ‘बाबा, अब आप जाइए।’
जब वह वृद्ध चला गया तब उन सज्जन से एंड्रयूज बोले, ‘यह अनाथ है और ज्वर से पीडि़त भी। यह वृद्ध ही इसकी देखरेख किया करता है लेकिन यह समय इसका ड्यूटी पर जाने का है। दोपहर तक लौट आएगा। तक तक मैं ही इसकी बंदगी किया करता हूं। इसकी सेवा ही मेरी पूजा है और यह टूटी फूटी झोंपड़ी ही मेरे लिए चर्च है।’