बहुत समय पहले की बात है, एक गांव में एक ठाकुर रहता था। ठाकुर का असली नाम सग्रांम सिंह था, पर उनका यह नाम बहुत कम लोग जानते थे। ठाकुर साहब के नाम से ही वे अपने इलाके में प्रसिद्ध थे।
ठाकुर साहब बड़े ठाठ बाट के आदमी थे। खाने पीने के बेहद शौकीन। जमीन काफी थी, पर उसकी आमदनी खाने पीने और ठाठ बाट में ही उड़ जाती थी।
ठाकुर साहब को पक्षी पालने का बड़ा शौक था। उनकी हवेली एक अच्छा खासा चिड़ियाघर बना हुआ था। इधर उधर पिंजरों में पक्षी लटकते नजर आते, इन पक्षियों में सबसे अधिक दर्शनीय एक उल्लू था, जो ठाकुर साहब को सबसे प्रिय था। वैसे देखने में उस उल्लू में ऐसी कोई विशेष्ता नहीं थी, पर ठाकुर साहब ने उसे एक विशेष आदत का अभ्यास करा दिया था। उनके आदेश पर वह सोने की गिन्नी को निगल जाता था और उनके आदेश देने पर गिन्नी को मुंह से उगल भी देता था। ठाकुर साहब ने उसे यहां तक अभ्यास करा दिया था कि वह एक बार में पांच गिन्नियां तक निगल जाता था और आदेशनुसार उन्हें एक एक कर उगल देता था। अपने उल्लू की इस विशेषता को ठाकुर साहब ने किसी को बताया नहीं थां
ठाकुर साहब की एक पुत्री थी। उन्हें उसका विवाह अचानक तय करना पड़ा और विवाह की तिथि भी दस दिन आगे की ही निश्चत हो गई। बेटी का विवाह सिर पर और ठाकुर साहब ठन ठन गोपाल, एक पैसा पास नहीं, समस्या विकट थी, पर वे घबराए नहीं। उन्होंने तय कर लिया कि बेटी की शादी निश्चत तिथि पर ही धूमधाम से होगी।
उसी गांव में एक साहूकार था, व्याज पर धन देता था। व्याज भी कस कर लेता था और मूल धन के बदले में कोई न कोई आभूषण गिरवी रख लेता था। ठाकुर साहब उसी साहूकार के पास गए और बोले, ”सेठ जी, मेरी बेटी का ब्याह सिर पर अचानक आ पड़ा है और आपके ही भरोसे मंजूर कर लिया है। कुछ मदद कीजिए।“
ठाकुर साहब की बात सुनकर साहूकार ने पूछा, कि ”कितना रूपया चाहिए, ठाकुर साहब?“
ठाकुर साहब बोले, ”यही कोई दस हजार से काम चल जाएगा, सेठ जी।“
अब दस हजार तो उस जमाने में मायने रखते थे। सुनकर पहले तो साहूकरा चौंका, फिर कुछ सोचकर बोला, ”गिरवी रखने को क्या लाए हो ठाकुर साहब?“
गिरवी की बात सुनकर ठाकुर साहब चौंके, आश्चर्य से बोले, ”भाई, लाया तो कुछ नहीं, मैं तो लेने आया हूं। लेकिन क्या आपको मुझ पर विश्वास नहीं है, जो ऐसी बातें कर रहे हैं?“
साहूकार ने दलील दी, ”विश्वास आप पर और आपकी नीयत पर किसे नहीं होगा, पर व्यापार में विश्वास से ही काम नहीं चलता, लेन देन का काम अपने नियमों पर ही चलता है।“
यह सुनकर ठाकुर साहब कुछ देर तो असमंजस में पड़े रहे, फिर कुछ सोचकर बोले, ”ठीक है, सेठ जी, मेरे पास एक बहुमूल्य चीज है। हालांकि उसे मैं किसी कीमत पर भी नहीं देता, पर बेटी का ब्याह करना है, इसलिए मजबूरी में उसे ही मैं आपके यहां गिरवी पर रख दूंगा।“
बहुमूल्य चीज की बात सुनकर सेठ के मुंह में पानी भर आया। उत्सुकता से बोले, ”ऐसी कौन सी चीज आपके पास है?“
ठाकुर साहब ने धीरे से सेठ के कान में कहा, ”एक उल्लू है सेठ जी, सुनहरी उल्लू।“
सहूकार चौंककर बोला, ”उल्लू! सोने का उल्लू? कितने तोले का है?“
ठाकुर साहब बोले, ”सोने का बना हुआ नहीं, जीता जागता उल्लू है, सेठ जी।“
यह सुनकर सेठ हंसा और बोला, ”आप भी मजाक करते हैं ठाकुर साहब, मैंने तो समझा कि बीस तीस तोले का सोने का उल्लू होगा।“
अब ठाकुर साहब ने फुलझड़ी छोड़ी, बोले, ”अरे सेठजी, यह उल्लू सोने की एक गिन्नी रोज उगलता है।“
सोने की गिन्नी की बात सुनकर सेठ की आंखें खुलीं की खुली रह गई। ठाकुर साहब समझ गए कि तीर चल गया है। वे अपनी बात पर और जोर देते हुए बोले, ”हां सोने की गिन्नी, आप परीक्षा करके देख लीजिए।“
साहूकर मान गया। अगले दिन ठाकुर साहब उल्लू को पांच गिन्नियां खिलाकर साहूकार के यहां लाए। उल्लू को सामने बिठा कर कहा, ”उगल बेटा।“ और उल्लू ने एक गिन्नी उगल दी। दूसरे दिन भी ठाकुर साहब ने साहूकार के सामने एक गिन्नी उगलवाई और तीसरे दिन सेठ से कहा कि अब वे उल्लू को आदेश दें। उत्सुकता से भरा साहूकार बोला, ”उगल बेटा।“ और उल्लू ने एक गिन्नी उगल दी। सेठ का मन बल्लियों उछलने लगा। उसने तुरंत चांदी के दस हजार रूपये ठाकुर साहब के सामने रख दिए।
ठाकुर साहब ने रूपये थैली में भरे और जाते जाते बोले, ”सेठ जी, आपके ये दस हजार जल्दी ही लौटाकर अपना उल्लू ले जाऊंगा।“
सहूकार मुस्कराते हुए बोला, ”अरे ठाकुर साहब, कोई जल्दी नहीं है, आराम से लौटाइएगा।“
ठाकुर साहब चले गए।
सहूकार उल्लू के लिए एक खूबसूरत पिंजरा लाया और उसमें उसे बिठाकर अपने सोने के कमरे में टांग दिया। उल्लू के पेट में दो गिन्नियां बची थीं, अतः अगले दो दिन तो उसने गिन्नी उगली, किंतु तीसरे दिन साहूकार की खिलाई हुई रबड़ी उगल दी। जब दो तीन दिन तक वह रबड़ी उगलने का क्रम चला तो साहूकार घबराया और नौकर को भेजकर ठाकुर साहब को बुलवाया। ठाकुर ने आते ही कहा, ”कहिए सेठ जी, कैसे याद किया?“
सेठ झल्लाकर बोला, ”ठाकुर, तुमने मेरे साथ धोखा किया है।“
ठाकुर बोला, ”धोखा? मैंने क्या धोखा दिया आपको?“
सेठ ने गुस्से से कांपते हुए कहा, ”हां, तुमने धोखा दिया है। तुम बेईमान हो।“
अब ठाकुर ने साहूकार को घूरकर आंखें तरेरीं और बोले, ”मैं बेईमान हूं?“
ठाकुर के गुस्से को देखकर सेठ कुछ रूआंसा हो गया। कुछ सहमी आवाज में बोला, ”तुम्हारा उल्लू बेईमान है। वह तीन दिन से गिन्नी नहीं उगल रहा है।“
ठाकुर तो असलियत जानता ही था, मगर दिखावे के लिए पूछा, ”तो फिर क्या उगल रहा है?“
सहूकार ने माथा ठोक कर कहा, ”रबड़ी।“
सुनकर ठाकुर ने आश्चर्य प्रकट किया, फिर पूछा कि आपने उसे खिलाया क्या था?
सेठ जी ने बताया कि रबड़ी खिलाई थी।
यह सुनते ही ठाकुर ने ठहाका लगाया और बोला, ”रबड़ी खिलाई थी, तो उसमें उल्लू का क्या कसूर है? सेठ जी, आपने रबड़ी खिलाई थी, सो उसने रबड़ी उगल दी। गिन्नी खिलाते तो गिन्नी उगल देता। आखिर ठाकुर का उल्लू है। बेईमानी थोड़े ही करेगा। जो खाएगा वही तो उगलेगा।“ यह कहकर ठाकुर साहब खिलखिलाते हुए साहूकार के घर से बाहर निकल गए। सेठ उल्लू की तरफ और उल्लू सेठ की तरफ देखता रह गया।