राशन की दुकान पर मेरा अनुभव पर लघु निबंध (Hindi essay on My Experience on Ration Shop)
वर्तमान प्रजातांत्रिक युग में राज्य का प्रमुख उदेश्य जनता का अधिक से अधिक हित करना है। सरकार जन कल्याण के उदेश्य से अनेक कार्य करती है।
उन्हीं कल्याणकारी कार्यों में से एक है- ‘राशन की व्यवस्था।’
राशन अर्थात् दैनिक आवश्यकता की कुछ वस्तुएँ निर्धारित मूल्यों पर उपलब्ध होना। हमारे देश में सरकार ने राशन व्यवस्था इस उदेश्य से आरम्भ की थी कि खुले बाजार में ऊँचे दामों पर वस्तुओं की बिक्री पर नियंत्रण रखा जा सके। राशन मध्यमवर्गीय अथवा निम्नवर्गीय परिवारों के लिए सीमित आय में बजट बनाने का एक साधन है।
शहरों में राशन उपलब्ध कराने के लिए राशन की दुकानें बनाई गई हैं। इन दुकानों पर सरकार की ओर से हर महीने निश्चित कोटा पहुँचा दिया जाता है। इसका उचित अनुपात में और उचित मूल्य पर जनता में वितरण कर दिया जाता है। राशन की मात्रा परिवार के सदस्यों की संख्या पर आधारित होती है। इसका ‘राशनकार्ड’ में वर्णन होता है। राशन की दुकान पर मिट्टी का तेल, चावल, चीनी, आटा, गेहूँ, चाय की पत्ती, घी आदि विभिन्न दैनिक उपभोग की वस्तुएँ मिलती हैं। विद्यालयों में नया सत्र आरम्भ होने पर राशन की दुकानें उचित दाम पर कापियाँ, वर्दी आदि भी उपलब्ध कराती हैं। राशन व्यवस्था लागू करने के भले ही धनी वर्ग पर कोई प्रभाव न पड़ा हो, किन्तु निर्धन वर्ग इससे काफी लाभान्वित हुआ है।
राशन की दुकान से समान खरीदने पर धन की बचत होती है। इससे घरेलु बजट पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ता। इन दुकानों से माल की शुद्धता संदेहास्पद नहीं होती। राशन की दुकान पर भले ही कोई बड़ा व्यक्ति जाए या छोटा, वस्तु का मूल्य समान रहता है। किसी छोटे सदस्य को देखकर दुकानदार ठग नहीं सकता। पर इस व्यवस्था का एक बुरा पहलू भी है। राशन की दुकान पर लोगों की भीड़ इतनी अधिक रहती है कि यहाँ से सामान खरीदने में कई कई घण्टे हो जाते हैं। अत समय बहुत अधिक बर्बाद होता है।
हमारे घर के निकट भी एक राशन की दुकान हैं, जहाँ से हम हर महीने राशन लेते हैं। राशन में हम प्राय चीनी और मिट्टी का तेल ही लेते हैं। हाँ कभी कभार चावल या गेहूँ भी ले लेते हैं। हमारे घर से राशन लेने के लिए अक्सर मेरी माता जी ही जाती हैं। मुझे कभी भी राशन की दुकान पर जाने की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। अलबत्ता, राशन की दुकान पर लगी लम्बी लम्बी लाइनें मुझे रोजगार कार्यालय के बाहर लगी लाइनों की भाँति प्रतीत होती थीं। जब कभी लाइन टूट जाती और धक्का मुक्की होने लगती, तो किसी मेले का सा आभास होता था।
पिछले महीने, शनिवार का दिन था। मेरी माता जी ने मुझसे राशन लाने को कहा। चूंकि महीने का आखिरी शनिवार होने के कारण मेरी छुट्टी थी। अत मैं भी इस कार्य को पूरा करने के लिए दिया। 9.30 बजे मैं दुकान पर पहुँचा, तो वहाँ पहले से ही एक लाइन लगी थी। अपने अपने राशनकार्ड हाथ में लिए हुए करीब पन्द्रह बीस लोग वहाँ उपस्थित थे। मैं भी चुपचाप लाइन में लग गया।
सोनिया गाँधीः एक जादुई व्यक्तित्व
भारत के राजनैतिक रंगमंच पर सोनिया गाँधी का आना एक जादुई करिश्मे की तरह प्रतीत होता है। श्रीमती इंदिरा गाँधी के दूसरे बेटे संजय गाँधी की दुर्घटना में मौत के पहले राजीव गाँधी या उनकी पत्नी सोनिया गाँधी का नाम महज इंदिरा गाँधी के पारिवारिक सदस्य के रूप में लिया जाता था। संजय की मृत्यु के बाद राजीव गाँधी भारतीय राजनीति में आए, भारत के प्रधानमंत्री भी बने। उनके जीवनकाल में सोनिया गाँधी का नाम सिर्फ उनकी पत्नी के रूप में लिया जाता था। अचानक राजीव गाँधी की हत्या के बाद भारत के राजनीतिक गलियारों में सोनिया गाँधी का नाम उभरा लेकिन उन्होंने अपने आप को नेपध्य में ही रखना स्वीकार किया। फिर धीरे-धीरे उन्होंने राजनीति में अपनी दखल-अंदाजी शुरू की। काफी विवादों के घेरे में भी रहीं क्योंकि भारतीय राजनैतिक गलियारों में उनका विदेशी मूल होना रास नहीं आ रहा था। जैसे तैसे उन्होंने कांग्रेस अध्यक्षा का पद प्राप्त कर लिया। फिर तो उनके करिश्मे का कहना ही क्या! बड़े बड़े नेता उनके आगे फीके पड़ गए।
सोनिया गाँधी के व्यक्तिगत जीवन को अगर देखें तो उनका जन्म एक रोमन कैथोलिक परिवार में हुआ था। 1964 में कैंब्रिज स्कूल आफ लैंग्वेज में उन्होंने दाखिला लिया जहां उनकी मुलाकात राजीव गाँधी से हुई। 1968 में दोनों का विवाह हो गया। राजीव गाँधी की मृत्यु के बाद 1997 में कांग्रेस की सदस्य चुनी गईं और 1998 में वे कांग्रेस की अध्यक्ष बन गईं। फिर 1999 में अमेठी लोकसभा क्षेत्र से तथा 2004 में रायबरेली से सांसद बनीं।
सोनिया गाँधी की वर्तमान ऊँचाई को देखकर यह सहज ही विश्वास नहीं होता कि महज 7-8 वर्षों में उन्होंने यह सफलता अर्जित की। उन्होंने कई परिस्थितियों में अपनी सूझ-बूझ का कुछ ऐसा कारनामा दिखाया कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भी मात खा गए। इसके उदाहरण के रूप में 1998 में कांग्रेस विभाजन को रोकना तथा कांग्रेस की दुर्दशा को 2004 तक ऐसी स्थिति जिससे कि कांग्रेस फिर से सत्ता में लौट सकी।
सोनिया गाँधी ने कई अर्थों में कुछ ऐसी मिसालें कायम कीं जो निःसन्देह सराहनीय है। राजीव गाँधी की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने को राजनीति से बिल्कुल अलग कर लिया। उन्होंने अपना सारा ध्यान अपने परिवार की और दिया। फिर जब उनके पुत्र राहुल और पुत्री प्रियंका ने अपनी जिम्मेदारियां संभाल ली तो सोनिया गाँधी ने राजनीति की कमान थामी। जिस सोनिया को सही ढंग से हिन्दी शब्दों का उच्चारण नहीं आता, उसने भारत की जनता पर ऐसी छाप छोड़ी कि 2004 में कांग्रेस सबसे बड़े राजनैतिक दल के रूप में आया। कुछ सहयोगी पार्टियों के साथ मिलकर कांग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में हो गई। सोनिया गाँधी को इसका नेता चुना गया। परन्तु अचानक उन्होंने प्रधानमंत्री का पद अस्वीकार कर दिया। बस फिर सोनिया गाँधी तो भारतीय मानसिकता पर राज करने लगीं। लोग उनके इस त्याग को महानतम कहने लगे। उनका इस पद से अस्वीकार एक ऐसा धमाकेदार कदम था कि जहाँ एक ओर अपने समर्थकों के बीच उन्होंने अपनी गहरी पैठ बनाई वहीं दूसरी ओर विपक्षों के सारे मुद्दों को एक झटके में मटियामेट कर दिया।
सोनिया गाँधी का व्यक्तित्व कुल मिलाकर काफी सराहनीय है। उनका अपने परिवार के प्रति लगाव, संयम, निष्ठा, धैर्य एवं उत्तरदायित्वों का सहज निर्वाहन उन्हें कई अर्थों में एक अलग पहचान देता है।