एक जंगल में एक सर्प रहता था। वह रोज चिड़ियों के अंडों, चूहों, मेंढकों एवं खरगोश जैसे छोटे-छोटे जानवरों को खाकर पेट भरता था। वह आलसी भी बहुत था। एक ही स्थान पर पड़े रहने के कारण कुछ ही दिनों में वह काफी मोटा हो गया। जैसे-जैसे वह ताकतवर होता गया, वैसे-वैसे उसका घमंड भी बढ़ता चला गया।
एक दिन सर्प ने सोचा, ”मैं जंगल में सबसे ज्यादा शक्तिशाल हूं। इसलिए मैं ही जंगल का राजा हूं। अब मुझे अपनी प्रतिष्ठा और आकार के अनुकूल किसी बड़े स्थान पर रहना चाहिए।“
यह सोचकर उसने अपने रहने के लिए एक विशाल पेड़ का चुनाव किया।
पेड़ के पास चींटियों की बस्तियां थी। वहां ढेर सारी मिटृी के छोटे-छोटे कण जमा थे।
उन्हें देखकर उसने घृणा से मुंह बिचकाया और कहा- ”यह गंदगी मुझे पसंद नहीं। यह बवाल यहां नहीं रहना चाहिए।“
वह गुस्से से बिल के पास गया और चींटियों से बोला- ”मैं नागराज हूं, इस जंगल का राजा! मैं आदेष देता हूं कि जल्द से जल्द इस गंद को यहां से हटाओ और चलती बनो।“
सर्पराज को देखकर वहां रहने वाले अन्य छोटे-छोटे जानवर थर-थर कांपने लगे।
पर नन्हीं चींटियों पर उसकी धौंस का कोई असर नहीं पड़ा।
यह देखकर सर्प का गुस्सा बहुत अधिक बढ़ गया और उसने अपनी पूंछ से बिल पर कोड़े की तरह जोर से प्रहार किया।
इससे चींटियों को बहुत गुस्सा आया। क्षण भर में हजारों चींटियां बिल से निकलकर बाहर आई और सर्प के शरीर पर चढ़कर उसे काटने लगीं।
नागराज का लगा जैसे उसके शरीर में एक साथ हजारों कांटें चुभ रहे हों। वह असहाय वेदना से बिलबिला उठे। असंख्य चींटियां उसे नोच-नोचकर खाने लगीं।
वह उनसे छुटकारा पाने के लिए छटपटाने लगा।
मगर इससे कोई फायदा नहीं हुआ।
कुछ देर तक वह इसी तरह संघर्ष करता रहा, पर बाद में अत्यधिक पीड़ा से उसकी जान निकल गई। उसके बाद भी चींटियों ने उसे नहीं छोड़ा और उसका नर्म मांस नोच-नोचकर खा गई।
कुछ ही देर बाद वहां सांप का अस्थि पंजर पड़ा था। इसीलिए कहते हैं कि किसी को छोटा समझकर उस पर बेवजह रोब नहीं जमाना चाहिए। बहुत सारे छोटे मिलकर बड़ी शक्ति बन जाते हैं।