संत कबीर के दोहे Kabir ke dohe in Hindi
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ।
भावार्थ: इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं
kabir hamaara koi nahin ham kaahoo ke naahim .
paarai pahunche naav jyaum milike bichhuri jaahim .
bhaavaarth: deh dhaaran karane ka dand – bhog ya praarabdh nishchit hai jo sab ko bhugatana hota hai. antar itana hi hai ki jnyaani ya samajhadaar vyakti is bhog ko ya duh kh ko samajhadaari se bhogata hai nibhaata hai santusht rahata hai jabaki ajnyaani rote hue – dukhi man se sab kuchh jhelata hai !
संत कबीर के दोहे – १५० दोहों का संग्रह अर्थ सहित
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहै,
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर
ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये
कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई
कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन,
कागा का को धन हरे, कोयल का को देय
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश
जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही
जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं
जो घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय
तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी
ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग
दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छवाये
पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए
प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग
मांगन मरण समान है, मत मांगो कोई भीख
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर
मालिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार
यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय
लूट सके तो लूट ले, हरी नाम की लूट
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराए
साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय
साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना
मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई
इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह
इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति
इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव
एकही बार परखिये ना वा बारम्बार
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस
कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव
कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार
कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार
कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव
कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि
कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि
कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई
कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फल होई
कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर
कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय
कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं
करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं
करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय
कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह
कागज़ केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट
काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत
कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय
गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह
गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई
जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप
जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि
जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ
जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह
जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर
जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार
ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि
झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह
झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय
तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत
तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार
तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह
देह धरे का दंड है सब काहू को होय
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय
नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ
पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट
पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत
बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश
बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार
बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर
बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच
बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै
मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी
मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय
मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ
माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए
मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह
मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई
मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि
मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास
यह तन विष की बेलरी
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत
लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार
शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान
सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग
हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास
हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई
हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध
हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि