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सिनेमा (चलचित्र) पर निबंध – Chalchitra Essay in Hindi

सिनेमा विज्ञान के अनगनित उपहारों में से एक है। रेडियो और टी.वी. के साथ साथ मनोरंजन और प्रबोधन के लिये जन साधारण में सिनेमा या चलचत्रि के प्रति आकर्षण कहीं अधिक है।

essay on cinema chalchitra in hindiथामस अल्वा एडीसन ने 1894 ई. में चलचित्र का आविष्कार किया। प्रारम्भ में मूक फिल्में होती थीं। फिल्मों में आवाज नहीं होती थी। भारत में चलचत्रि का प्रारम्भ 1913 के लगभग हुआ। सर्वप्रथम दादा साहेब फाल्के ने ‘हरिश्चन्द्र’ नामक एक मूक फिल्म बनायी। सन् 1931 में ‘आलम आरा’ नामक पहली बोलती फिल्म का निर्माण हुआ। आज हमारा फिल्म उद्योग हालीवुड के बाद दूसरे स्थान पर है। भारत में प्रति वर्ष सैकड़ों हिन्दी व प्रान्तीय भाषा की फिल्मों का निर्माण होता है।

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सिनेमा की लोकप्रियता में जितनी तीव्रता से वृद्धि हुई वह सर्वविदित है। आज जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिस पर फिल्मी प्रभाव न हो। पहले केवल पौराणिक और धार्मिक विषयों पर फिल्में बनती थीं। आज कोई भी विषय फिल्मों से अछूता नहीं रहा है। जीवन के हर पहलू पर फिल्में बन चुकी हैं। बड़ा परदा मनोरंजन का सबसे सस्ता व सुलभ साधन है। मनोरंजन के अतिरिक्त भी सिनेमा के अपने फायदे हैं

सिनेमा के सदुपयोग द्वारा शिक्षा प्रसार तथा समाज सुधार के कार्यों में बहुत अधिक सफलता प्राप्त की जा चुकी है। सिनेमा के माध्यम से देश विदेश का ज्ञान एवं उसके इतिहास, सभ्यता व संस्कृति की पहचान बड़ी आसानी से हो जाती है।

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चलचित्र में विज्ञापन द्वारा रोजगार और व्यापार को बढ़ावा मिलता है। फिल्मी गानों, पत्रिकाओं और फिल्मी सितारों का भी लोगों के जीवन में एक अलग स्थान है।

जहां चलचित्र लोगों के दिलों में इतना घर कर गया है वहीं चोरी डकैती, अपहरण वह मारधाड़ के दृश्यों से बुरा असर भी पड़ा है। कई बार इनसे प्रोत्साहित होकर लोग गलत रास्तों पर चल पड़ते हैं। इसके अलावा फैशन की फूहड़ता को भी फिल्मों द्वारा प्रोत्साहन मिलता है। इसलिए हमें अच्छी व शिक्षाप्रद फिल्मों का निर्माण करना चाहिये जिससे बच्चे हीरो व हीरोइन को अपना आदर्श बना सकें।

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चलचित्र या सिनेमा पर निबंध  (600 शब्द )

मनुष्य ने जैसे जैसे होश सम्भाला, वैसे वैस ही उसने अपनी बढ़ती हुई इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने ज्ञान की रोशनी की और तेज करने का उद्योग भी शुरू कर दिया। इस उद्योग के द्वारा उसने ज्ञान से बढ़कर विज्ञान को प्राप्त कर लिया। आज मनुष्य ने विज्ञान से बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है- विज्ञान से मनुष्य ने जो कुछ प्राप्त किया है, उसमें सिनेमा भी एक महत्वपूर्ण साधन है। चलचित्र ने समाज और वातावरण को कैसे प्रभावित किया है। इस पर हम यहाँ प्रकाश डाल रहे हैं।

चलचित्र या सिनेमा ने सचमुच में समाज और वातावरण की काया उलट पलट करके रख दी है। चलचित्र आज जीवन का आवश्यक और अभिन्न अंग बन चुका है। यह विज्ञान का एक आकर्षक और स्वस्थ आविष्कार है। इसने अपने अद्भुत प्रभाव के द्वारा समस्त संसार को विस्मयकारी परिवर्तन की परिधि में ला दिया है।

चलचित्र 19वीं शताब्दी का आविष्कार है। इसके आविष्कारक टामस एल्वा एडिसन अमेरिका के निवासी थे। जिन्होंने 1890 में इसको हमारे सामने प्रस्तुत किया था। पहले पहल सिनेमा लंदन में कुमैर नामक वैज्ञानिक द्वारा दिखाया गया था। भारत में चलचित्र दादा साहब फाल्के के द्वारा सन् 1913 में बनाया गया, जिसकी काफी सराहना की गई थी। फिर इसके बाद में न जाने आज तक कितने चलचित्र चल पड़े और कितने रूपय इस पर खर्च हुए, कौन कह सकता है? लेकिन यह बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि भारत का स्थान चलचित्र के महत्व की दिशा में विश्व में अमेरिका के बाद दूसरा है। यदि यह कहा जाए कि कुछ समय के बाद भारत प्रथम स्थान प्राप्त कर लेगा तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।

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सिनेमा जहाँ मनोरंजन का साधन है, वहाँ शिक्षा व प्रचार का भी सर्वश्रेष्ठ साधन है। अमेरिका और यूरोपीय देशों मे भूगोल, इतिहासा और विज्ञान जैसे शुष्क विषयों को चलचित्रों द्वारा समझाया जाता है।

समाज को सुधारने में चित्रपट का पर्याप्त हाथ है। सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में सहस्त्रों प्रचारक जो काम न कर सके, वह चलचित्र ने कर दिखाया। ‘बाबी’, ‘प्रेमरोग’, आँधी’, ‘जागृति’, ‘चक्र’, ‘आक्रोश’, ‘फिर भी’ आदि फिल्मों ने समाज पर अपना प्रभाव स्थापित किया।

 

अब सिनेमा का रूप केवल काली और सफेद तस्वीरों तक सीमित न होकर विविध प्रकार की रंगीन और आकर्षक चित्रों में ढलता हुआ, जन जन के गले का हार बना हुआ दीख रहा है। सच कहा जाए तो सिनेमा अपनी इसी अद्भुत विशेषता के कारण समाज और संसार को अपने प्रभावों में ढाल रहा है। उसकी काया पलट कर रहा है। सिनेमा की गर्मी कहीं भी देखी जा सकती है। यहाँ तक देखा जाता है कि लोग भर पेट भोजन की चिन्ता न करके पैसा बचा कर सिनेमा देखने के लिए जरूर जाते हैं। सिनेमा के बढ़ते हुए प्रभाव से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है कि सिनेमा हमारे जीवन का एक अत्यन्त आवश्यक अंग तो बन ही चुका है। इसके साथ ही साथ यह जीवन प्राण भी बन गया है। इसके बिना तो ऐसा लगाता है, जैस हम प्राणहीन हो चुके हैं।

सिनेमा से जहाँ इतने लाभ है, वहाँ हानियाँ भी बहुत हैं। आज भारत में अधिकांश चित्र नग्न, प्रेम और अश्लील वासना वृद्धि पर आधारित होते हैं। इससे जहाँ नवयुवकों के चरित्र का अधपतन हुआ है। वहाँ समाज में व्यभिचार और अश्लील भी बढ़ गई है।

दूसरे आजकल के सिनेमा में जो गाने चलते हैं, वे प्रायः अश्लील और वासनात्मक प्रवृत्तियों को उभारने वाले होते हैं, किन्तु उनकी लय और स्वर इतने मधुर होते हैं कि आज तीन तीन और चार चार वर्ष के बच्चों से भी आप वे गाने सुन सकते हैं।

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आज जीवन में सिनेमा का बहुत ही अधिक महत्व है। सिनेमा से हमारा मनोविनोद जितनी आसानी और सुविधा से होता है, उतना शायद अन्य किसी और साधन के द्वारा नहीं होता है। सिनेमा से हमें लाभ लाभ ही है। शिक्षा, राजनीति, धर्म-दर्शन, कला, संस्कृति सभ्यता, विज्ञान, साहित्य, व्यापार इत्यादि के विषय में हमें आपेक्षित जानकारी होती है। वास्तव में सिनेमा हमारी स्वतंत्र इच्छाओं के अनुसार हमें दिखाई देता है, जिसे देखकर हम फूले नहीं समाते हैं।

(600 शब्द words)

सिनेमा का युवा पीढ़ी पर प्रभाव निबंध

हर व्यक्ति के लिए मनोरंजन आवश्यक है। इसके बिना जीवन नीरस और बेरंग लगता है, जबकि मनोरंजन से जीवन में नवीन स्फूर्ति, नई शक्ति तथा जोश का संचार होता है। आज विज्ञान की बदौलत हमारे पास मनोरंजन के अनेक साधन हैं जैसे-दूरदर्शन, रेडियो, खेलकूद, चित्रकला, प्रदर्शनियाँ, बड़े-बड़े मेले इत्यादि।

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लेकिन इन सभी में चलचित्र सबसे सस्ता, सुगम तथा लोकप्रिय साधन है। चलचित्र ने नाटक, एकांकी तथा रंगमंचीय कलाओं का भी स्थान ले लिया है।

सिनेमा (चलचित्र) के सदुपयोग से लाभ :

चलचित्र के सदुपयोग द्वारा शिक्षा प्रसार तथा समाज-सुधार के कार्यों में बहुत अधिक सफलता प्राप्त की जा सकती है। बाल-विवाह, विधवा-विवाह उल्लंघन, बाल-श्रम, छुआछूत, जात-पात आदि कुरीतियों को चलचित्र के माध्यम से संदेशात्मक रूप में दिखाया जा सकता है।

चलचित्रों के माध्यम से दर्शक उन विषयों पर विचार कर ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं तथा कुछ जागरूक व्यक्ति बुराइयों के खिलाफ लड़ भी सकते हैं। चलचित्र पर दिखाई जाने वाली ‘डाक्यूमेन्ट्री फिल्मे’ बहुत ज्ञानवर्धक होती हैं।

सिनेमा (चलचित्र) के दुरुपयोग से हानियाँ :

हर वस्तु का दूसरा पहलू भी होता है। समझदार व्यक्ति चलचित्र का सदुपयोग करके यदि लाभान्वित हो रहे हैं तो कुछ नासमझ लोग इसके दुरुपयोग से नैतिक पतन के रास्ते पर जा रहे हैं। चित्रपट पर गन्दे, भद्दे तथा अश्लील नृत्य दिखाए जाते हैं, बेढंगे हास्य कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं, जिनका दर्शकों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। कुछ विद्यार्थी घर से भागकर या माता-पिता से झूठ बोलकर अश्लील चलचित्र देखने जाते हैं, जिसका उन पर कुप्रभाव पड़ता है।

वे चोरी, डकैती, बलात्कार, अपहरण आदि की जो घटनाएँ देखते हैं, उन्हीं को अपने जीवन में अपनाने लगते हैं, जिससे उनका समय भी बर्बाद होता है तथा चारित्रिक पतन भी होता है। अधिक चलचित्र हमारी सेहत पर भी बहुत प्रभाव डालते हैं। हमारी आँखों की रोशनी क्षीण होने लगती है तथा हमारे शरीर में आलस्य आ जाता है।

उपसंहार :

सिनेमा आज हमारे सामाजिक जीवन की आवश्यकता बन चका है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम चलचित्र को अपने मनोरंजन के लिए देखते हैं या फिर उसके आदी ही हो जाते हैं।

सिनेमा का सामाजिक प्रभाव

चलचित्र न केवल मनोरंजन का एक आसान और सस्ता साधन है अपितु समाज के सागिन अध्ययन और रूपायन का माध्यम भी है। देशकाल और वातावरण के सटीक चित्रण द्वारा सामाजिक पारिदृश्य को चित्रपट पर उभारकर यह एक सफल आलोचक की भूमिका का निर्वाह करता है। चलचित्र में जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसकी संपूर्ण झांकी प्रस्तुत नही की जाती। समाज में बढ़ती हुई असामाजिक घटनाएं, आतंकवाद, नारी उत्पीड़न, शोषण, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता, जड़ता, बेरोजगाड़ी, अशिक्षा, मद्यपान की समस्या आदि का चित्रण कर उसके दुष्परिणामों से यह अवगत कराता है। साथ ही इनसे लड़ने की प्रेरणा भी प्रदान करता है। इतना ही नही पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का अंकन भी चलचित्र के द्वारा किया जाता है। चलचित्र साधारण जनता के हृदय पर सीधा और स्पष्ट प्रभाव डालता है। सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और सामयिक समस्याओं की सफल आलोचना कर यह सामाजिक दायित्व का पालन भी करता है।

चलचित्र के माध्यम से हम मानव जीवन के हर सम्भव पहलुओं का अध्ययन ही नहीं करते अपितु उसके परिणामों का प्रभाव भी रूपायित कर सकते हैं। इतना ही नहीं संपूर्ण विश्व की जीवन्त तसवीर इसके माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। राष्ट्रीय जीवन की विशेषताओं और कमजोरियों का अंकन कर चलचित्र राष्ट्रनिर्माण का कार्य भी करता है। वास्तव में चलचित्र किसी भी देश समाज और काल की संस्कृति का बाहक है। कभी कभी इसके दुस्परिणाम भी सामने आते हैं। किन्तु कोई भी चीज अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं होती। उसका अच्छा या बुरा प्रभाव उसके प्रयोग पर निर्भर करता है। व्यावसायिकता की होड़ में कतिपय फिल्मकार वासना की कुत्सित गतिविधियों का प्रदर्शन भी इसके माध्यम से करते हैं। आज फिल्म मनोरंजन के साथ-साथ व्यसन का साधन भी हो गया है। जिसका समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। समाज के सामने यह अनुचित आदर्श भी पेश करता है।

यद्यपि इसके उचित निर्देशन के लिए सेंसर बोर्ड की स्थापना की गई है किन्तु यह कहाँ तक और किस तरह अपने दायित्व का पालन कर रही है यह कहना मुश्किल है। फिर भी यदि यह अपने कर्तव्य का उचित ढंग से पालन करे तो साधारण जन में ज्ञान की, जागरूकता की नई लहर चलचित्र के माध्यम से विकसित की जा सकती है।

हमारा यह कर्तव्य है कि मानव जीवन की इस विस्तृत प्रयोगशाला का जीवन के प्रति व्यापक दृष्टिकोण के विस्तार के लिए उचित प्रयोग करें।

सिनेमा का उद्देश्य

सिनेमा की शुरूआत से ही इसका समाज के साथ गहरा सम्बनध रहा है । प्रारम्भ में इसका उद्देश्य मात्र लोगों का मनोरंजन करना भर था । अभी भी अधिकतर फिल्में इसी उद्देश्य को लेकर बनाई जाती हैं, इसके बावजूद सिनेमा का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है ।

कुछ लोगों का मानना है कि सिनेमा समाज के लिए अहितकर है एवं इसके कारण अपसंस्कृति को बढ़ावा मिलता है । समाज में फिल्मों के प्रभाव से फैली अश्लीलता एवं फैशन के नाम पर नंगेपन को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु सिनेमा के बारे में यह कहना कि यह केवल बुराई फैलाता है, सिनेमा के साथ अन्याय करने के तुल्य होगा ।

सिनेमा का प्रभाव समाज पर कैसा पड़ता है, यह समाज की मानसिकता पर निर्भर करता है । सिनेमा में प्रायः अच्छे एवं बुरे दोनों पहलुओं को दर्शाया जाता है । समाज यदि बुरे पहलुओं को आत्मसात करे, तो इसमें भला सिनमा का क्या दोष है ।

विवेकानन्द ने कहा था- ”संसार की प्रत्येक चीज अच्छी है, पवित्र है और सुन्दर है यदि आपको कुछ बुरा दिखाई देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह चीज बुरी है । इसका अर्थ यह है कि आपने उसे सही रोशनी में नहीं देखा ।” द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ, जो युद्ध की त्रासदी को प्रदर्शित करने में सक्षम थीं; ऐसी फिल्मों से समाज को सार्थक सन्देश मिलता है ।

सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सिनेमा सक्षम है । दहेज प्रथा और इस जैसी अन्य सामाजिक समस्याओं का फिल्मों में चित्रण कर कई बार परम्परागत बुराइयों का विरोध किया गया है । समसामयिक विषयों को लेकर भी सिनेमा निर्माण सामान्यतया होता रहा है ।

भारत की पहली फिल्म ‘राजा हीरश्चन्द्र’ थी । दादा साहब फाल्के द्वारा यह मूक वर्ष 1913 में बनाई गई थी । उन दिनों फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं समझा जाता था, तब महिला किरदार भी पुरुष ही निभाते थे जब फाल्के र्जा से कोई यह अता कि आप क्या करते हैं, तब वे कहते थे – ”एक हरिश्चन्द्र की फैक्ट्री है, हम उसी में काम करते है ।”

उन्होंने फिल्म में काम करने वाले सभी पुरुषकर्मियों को भी यही कहने की सलाह दे रखी थी, किन्तु धीरे-धीरे फिल्मों का समाज पर सकारात्मक प्रभाव देख इनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण भी सकारात्मक होता गया । भारत में इम्पीरियल फिल्म कम्पनी द्वारा आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में वर्ष 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ बनाई गई ।
प्रारम्भिक दौर में भारत में पौराणिक एवं ऐतिहासिक फिल्मों का बोल-बाला रहा, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक फिल्मों का भी बडी संख्या में निर्माण किया जाने लगा । छत्रपति शिवाजी, झाँसी की रानी, मुगले आजम, मदर इण्डिया आदि फिल्मों ने समाज पर अपना गहरा प्रभाव डाला ।

उन्नीसवीं सदी के साठ-सत्तर एवं उसके बाद के कुछ दशकों में अनेक ऐसे भारतीय फिल्मकार हुए, जिन्होंने कई सार्थक एवं समाजोपयोगी फिल्मों का निर्माण किया । सत्यजीत राय (पाथेर पाँचाली, चारुलता, शतरंज के खिलाड़ी), वी. शान्ताराम (डॉ कोटनिस की अमर कहानी, दो आँखें बारह हाथ, शकुन्तला), ऋत्विक घटक मेधा ढाके तारा), मृणाल सेन (ओकी उरी कथा), अडूर गोपाल कृष्णन (स्वयंवरम्), श्याम बेनेगल (अंकुर, निशान्त, सूरज का सातवाँ घोड़ा), बासु भट्‌टाचार्य (तीसरी कसम) गुरुदत (प्यासा, कागज के फूल, साहब, बीवी और गुलाम), विमल राय (दो बीघा जमीन, बन्दिनी, मधुमती) भारत के कुछ ऐसे ही प्रसिद्ध फिल्मकार है ।

चूँकि सिनेमा के निर्माण में निर्माता को अत्यधिक धन निवेश करना पड़ता है, इसलिए वह लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से कुछ ऐसी बातों को भी सिनेमा में जगह देना शुरू करता है, जो भले ही समाज का स्वच्छ मनोरंजन न करती हो, पर जिन्हें देखने बाले लोगों की संख्या अधिक हो ।

गीत-संगीत, नाटकीयता एवं मार-धाड़ से भरपूर फिल्मों का निर्माण भी अधिक दर्शक संख्या को ध्यान में रखकर किया जाता है । जिसे सार्थक और समाजोपयोगी सिनेमा कहा जाता है, बह आम आदमी की समझ से भी बाहर होता है एवं ऐसे सिनेमा में आम आदमी की रुचि भी नहीं होती, इसलिए समाजोपयोगी सिनेमा के निर्माण में लगे धन की वापसी की प्रायः कोई सम्भावना नहीं होती ।

इन्हीं कारणों से निर्माता ऐसी फिल्मों के निर्माण से बचते हैं । बावजूद इसके कुछ ऐसे निर्माता भी हैं, जिन्होंने समाज के खास वर्ग को ध्यान में रखकर सिनेमा का निर्माण किया, जिससे न केवल सिनेमा का, बल्कि समाज का भी भला हुआ ।

ऐसी कई फिल्मों के बारे में सत्यजीत राय कहते हैं – ”देश में प्रदर्शित किए जाने पर मेरी जो फिल्म में लागत भी नहीं वसूल पाती, उनका प्रदर्शन विदेश में किया जाता है, जिससे घाटे की भरपाई हो जाती है ।” वर्तमान समय में ऐसे फिल्म निर्माताओं में प्रकाश झा एवं मधुर भण्डारकर का नाम लिया जा सकता है । इनकी फिल्मों में भी आधुनिक समाज को भली-भाँति प्रतिबिम्बित किया जाता है ।

पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है, इसका असर इस दौरान निर्मित फिल्मों पर भी दिखाई पड़ा हे । फिल्मों में आजकल सेक्स और हिंसा को कहानी का आधार बनाया जाने लगा है ।

तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हिंसा एवं सेक्स को अन्य रूप में भी कहानी का हिस्सा बनाया जा सकता हो किन्तु युवा वर्ग को आकर्षित कर धन कमाने के उद्देश्य से जान-अकर सिनेमा में इस प्रकार के चित्रांकन पर जोर दिया जाता है । इसका कुप्रभाव समाज पर भी पड़ता है ।

दुर्बल चरित्र वाले लोग फिल्मों में दिखाए जाने वाले अश्लील एवं हिंसात्मक दृश्यों को देखकर व्यावहारिक दुनिया में भी ऊल-जलूल हरकत करने लगते है । इस प्रकार, नकारात्मक फिल्मों से समाज में अपराध का ग्राफ भी प्रभावित होने लगता है ।

इसलिए फिल्म निर्माता, निर्देशक एवं लेखक को हमेशा इसका ध्यान रखना चाहिए कि उनकी फिल्म में किसी भी रूप में समाज को नुकसान न पहुँचाने पाएँ, उन्हें यह भी समझना होगा कि फिल्मों में अपराध एवं हिंसा को कहानी का विषय बनाने का उद्देश्य उन दुर्गुणों की समाप्ति होती है न कि उनको बढावा देना ।

इस सन्दर्भ में फिल्म निर्देशक का दायित्व सबसे अहम् होता है, क्योंकि वह फिल्म के उद्देश्य और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को भली-भांति जानता है । सत्यजीत राय का भी मानना है कि फिल्म की सबसे सूक्ष्म और गहरी अनुभूति केवल निर्देशक ही कर सकता है ।

वर्तमान समय में भारतीय फिल्म उद्योग विश्व में दूसरे स्थान पर है । आज हमारी फिल्मों को ऑस्कर पुरस्कार मिल रहे हैं । यह हम भारतीयों के लिए गर्व की बात है । निर्देशन, तकनीक, फिल्मांकन, लेखन, संगीत आदि सभी स्तरों पर हमारी फिल्म में विश्व स्तरीय हैं ।

आज हमारे निर्देशकों, अभिनय करने बाले कलाकारों आदि को न सिर्फ हॉलीबुड से बुलावा आ रहा है, बल्कि धीरे-धीर वे विश्व स्तर पर स्वापित भी होने लगे है । आज आम भारतीयों द्वारा फिल्मों से जुड़े लोगों को काफी महत्व दिया जाता है । अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय द्वारा पोलियो मुक्ति अभियान के अन्तर्गत कहे गए शब्दों ‘दो बूंद जिन्दगी के’ का समाज पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है ।

लता मंगेशकर, आशा भोंसले, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश आदि फिल्म से जुड़े गायक-गायिकाओं के गाए गीत लोगों की जुबान पर सहज ही आ जाते हैं । स्वतन्त्रता दिबस हो, गणतन्त्र दिवस हो या फिर रक्षा बन्धन जैसे अन्य त्योहार, इन अवसरों पर भारतीय फिल्मों के गीत का बजना या गाया जाना हमारी संस्कृति का अंग बन चुका है । आज देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में फिल्मी हस्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लगी है ।

आज देश के बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘नॉक आउट’, ‘पीपली लाइव’, ‘तारे जमीं पर’ जैसी फिल्में सराही जा रही है । ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में मीडिया के प्रभाव, कानून के अन्धेपन एवं जनता की शक्ति को चित्रित किया गया, तो ‘नॉक आउट’ में विदेशों में जमा भारतीय धन का कच्चा चिल्ला खोला गया और ‘पीपली लाइव’ ने पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बढी ‘पीत पत्रकारिता’ को जीवन्त कर दिखाया ।

ऐसी फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है एवं लोग सिनेमा से शिक्षा ग्रहण कर समाज सुधार के लिए कटिबद्ध होते हैं । इस प्रकार, आज भारत में बनाई जाने वाली स्वस्थ व साफ-सुथरी फिल्में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो रही है । ऐसे में भारतीय फिल्म निर्माताओं द्वारा निर्मित की जा रही फिल्मों से देशवासियों की उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं, जो भारतीय फिल्म उद्योग के लिए सकारात्मक भी है ।

सिनेमा का समाज पर प्रभाव पर निबंध

प्रस्तावना-
चलचित्र का विचित्र आविष्कार आधुनिक समाज के दैनिक उपयोग, विलास और उपभोग की वस्तु है। हमारे सामाजिक जीवन में चलचित्र ने इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है कि उसके बिना सामाजिक जीवन कुछ अधूरा-सा मालूम पड़ता है। सिनेमा देखना जनता के जीवन की भोजन और पानी की तरह दैनिक क्रिया हो गयी है।

प्रतिदिन शाम को चित्रपट गृहों के सामने एकत्रित जनसमुदाय, नर-नारियों को समवाय देख कर चित्रपट की जनप्रियता तथा उपयोगिता का अनुमान लगाया जा सकता है। मनोरंजन सिनेमा का मुख्य प्रयोजन है, परन्तु मनोरंजन के अतिरिक्त भी जीवन में इसका बहुत महत्त्व है। इसके अनेक लाभ हैं।

मनोरंजन का साधन-
आधुनिक काल में मानव जीवन बहुत व्यस्त हो गया है। उसकी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गयी हैं। व्यस्तता के इस युग में मनुष्य के पास मनोरंजन का समय नहीं है। यह सभी जानते हैं कि मनुष्य भोजन के बिना चाहे कुछ समय तक स्वस्थ रह जाये किन्तु मनोरंजन के बिना यह स्वस्थ नहीं रह सकता है। चित्रपट मनुष्य की इस महती आवश्यकता की पूर्ति करता है। यह मानव जीवन की उदासीनता और खिन्नता को दूर कर ताजगी और नवजीवन प्रदान करता है।

दिनभर कार्य में व्यस्त, थके हुए नर-नारी शाम को सिनेमा हाल में बैठकर आनन्दमग्न हो जाते हैं और दिनभर की थकान को भूल जाते हैं। चित्रपट पर हम सिनेमा हाल में बैठे दिल्ली के जुलूस, हिमालय के हिमाच्छादित शिखर, समुद्र के अतल गर्भ के दृश्य तथा हिंसक वन्य जन्तु आदि वे चीजें देख सकते हैं, जिनको देखने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

इससे मनोरंजन तो होता ही है, हमारे ज्ञान में भी पर्याप्त-वृद्धि होती है। इसके लिए अब कहीं जाना नहीं पड़ता। घर पर ही दूरदर्शन के माध्यम से यह सब कुछ देखा जा सकता है। अनेक प्रकार के समाचार सुने जा सकते हैं।

चित्रपट के सामाजिक लाभ-
मनोरंजन के अतिरिक्त सिनेमा से समाज को और भी अनेक लाभ होते हैं। यह शिक्षा का अत्युत्तम साधन है। यह निम्न श्रेणी के लोगों का स्तर ऊँचा उठाता है और उच्च श्रेणी के लोगों को उचित स्तर पर लाकर विषमता की भावना को दूर करता है। यह कल्पना को वास्तविकता का रूप देकर समाज को उन्नत करने का प्रयास करता है। इतिहास, भूगोल, विज्ञान तथा मनोविज्ञान आदि की शिक्षा का यह उत्तम साधन है।

ऐतिहासिक घटनाओं को पर्दे पर सजीव देखकर जैसे सरलता से थोड़े समय में जो ज्ञान हो सकता है वह ज्ञान पुस्तकों के पढ़ने से नहीं हो सकता। भिन्न-भिन्न प्रदेशों के दृश्य चित्रपट पर साक्षात देखकर वहाँ की प्राकृतिक रचना, जनता का रहन-सहन तथा उद्योगों आदि का जैसा ज्ञान हो सकता है वह भूगोल की पुस्तक पढ़ने से कदापि सम्भव नहीं है। इसी प्रकार अन्य विषयों की शिक्षा भी चित्रपट द्वारा सरलता से दी जा सकती है।

चित्रपट के पर्दे पर भिन्न-भिन्न स्थानों, भिन्न-भिन्न जातियों तथा विविध विचारों की जनता के रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि को देखकर हमारा ज्ञान बढ़ता है, सहानुभूति की भावना विस्तृत होती है तथा हमारा दृष्टिकोण विकसित होता है। इस प्रकार चित्रपट मनुष्यों को एक दूसरे के निकट लाता है। इतना ही नहीं, “जागृति’ के समान शिक्षाप्रद चित्रों से एक उच्च शिक्षा प्राप्त होती है। ‘अमर ज्योति’, ‘सन्त तुलसीदास’, ‘सन्त तुकाराम’ आदि कुछ ऐसे चित्र हैं, जो समाज को पतन से उत्थान की ओर ले जाते हैं।

सामाजिक आलोचना-
सिनेमा सामाजिक आलोचक के रूप में भी सेवा करता है। जब यह उत्तम तथा निकृष्ट घटनाओं अथवा व्यक्तियों के चरित्रों की तुलना करता है तब यह निश्चित ही जनता में उच्चता की भावना जाग्रत करता है। सामाजिक कुप्रभावों तथा दोषों की जड़ उखाड़ने में चित्रपट महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकता है। यह समाज की कुप्रथाओं को पर्दे पर प्रस्तुत करता है और जनता के हृदय में उनके प्रति घृणा का भाव पैदा करता है।

हम चित्रपट पर दहेज, बाल-विवाह, पर्दा प्रथा तथा मद्यपान से होने वाले दुष्परिणामों को देखते हैं तो हमारे मन में उनके प्रति घृणा की भावना पैदा हो जाती है। हम उन प्रथाओं को समूल नष्ट करने की शपथ लेने को तैयार हो जाते हैं। इस प्रकार चित्रपट समाज की आलोचना करता है और एक सुधारक का काम भी करता है।

चित्रपट के दुष्परिणाम-
प्रत्येक वस्तु गुणों के साथ-साथ दोष भी रखती है। सिनेमा में जहाँ अनेक गुण तथा लाभ देखने को मिलते हैं वहाँ उससे हानियाँ भी कम नहीं होती हैं। आजकल जितने भी चित्र तैयार हो रहे हैं वे अधिकतर प्रेम और वासनामय हैं, चोरी डकैती के हैं, हिंसा एवं बलात्कार के हैं। इनमें वासनात्मक प्रेम एवं यौन सम्बन्धों का अश्लील चित्रण होता है जिनका देश के युवकों तथा युवतियों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

कालिज की लड़कियाँ तथा लड़के सिनेमा के भद्दे, अश्लील गाने गाते हुए सड़कों पर दिखाई पड़ते हैं। इन गानों के दुष्प्रभाव से युवक समाज का मानसिक तथा आत्मिक पतन होता है। वे गन्धर्व विवाह जैसे कार्य करने को तत्पर होने लगते हैं। नई पीढ़ी का मन एवं मस्तिष्क प्रदूषित हो गया है। वैचारिक उच्चता समाप्त सी हो गयी है।

अन्य हानियाँ-
इसके अतिरिक्त सिनेमा से और भी हानियाँ हो सकती हैं। जब यह व्यसन के रूप में देखा जाता है तो धन, समय तथा शक्ति का अपव्यय होता है। जनता के मस्तिष्क में विषैली भावना पैदा करने तथा गुमराह करने में भी सिनेमा का दुरुपयोग किया जा सकता है। हिटलर ने सिनेमा की इसी शक्ति ‘ का प्रयोग कर जर्मनी की जनता को भड़काया था। दूरदर्शनीय चलचित्र भारतीय संस्कृति पर काले धब्बों की भाँति हैं। सदाचार एवं सदाचरण का ह्रास हो रहा है।

उपसंहार-
हमें इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि कोई भी वस्तु स्वयं न अच्छी होती है, न बुरी। वस्तु का अच्छा या बुरा होना उसके उपयोग पर निर्भर करता है। यदि चित्रपट का विचारपूर्वक सही प्रयोग किया जाये तो मानव जाति के लिए यह बहत लाभदायक हो सकता है तथा इसके सब दोषों से बचा जा सकता है।

सेन्सर बोर्ड को चाहिए कि वह अच्छे, शिक्षाप्रद तथा आदर्श-चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न करे। चित्रों में किसी महापुरुष को नायक होना चाहिए क्योंकि बच्चे. स्वभाव से ही नायक का अनुसरण किया करते हैं। भद्दे, अश्लील तथा बुरा प्रभाव डालने वाले चित्रों पर कानूनी रोक लगायी जानी चाहिए। इस प्रकार सिनेमा समाज के लिए तथा देश के लिए एक हितकारी और लाभदायक साधन हो सकता है।

सिनेमा का अर्थ

सिनेमा का हिन्दी मे अर्थ (Meaning of cinema in Hindi) – मनोरंजन का एक ऐसा साधन जिसमें कोई कहानी घटित होती है और चलती-फिरती छवियों के कारण जिसमें निरंतरता का आभास होता है

सिनेमा का वाक्य मे प्रयोग (Usage of cinema) – मोहिनी खाली समय में सिनेमा देखना पसंद करती है

सिनेमा का अंग्रेजी मे अर्थ (Meaning of cinema in English) – Movies

सिनेमा के समानार्थी शब्द (synonyms of cinema) – फ़िल्म, पिक्चर, चलचित्र

चलचित्र का समाज पर प्रभाव पर भाषण

आज के आधुनिक जमाने में सिनेमा का हमारे जीवन पर बहुत प्रभाव बढ़ गया है। अब हर दिन नये नये मल्टीप्लेक्स, माल्स खुल रहे है जिसमे हर हफ्ते नई नई फिल्मे दिखाई जाती है।

इंटरनेट तकनीक सुलभ हो जाने से और नये नये स्मार्टफोन आ जाने की वजह से आज हर बच्चा, बूढ़ा या जवान अपने मोबाइल फोन में ही सिनेमा देख सकता है। आज हम अपने टीवी, कम्प्यूटर, लैपटॉप, फोन में सिनेमा देख सकते हैं। इस तरह इसका प्रभाव और भी व्यापक हो गया है।

पिछले 50 सालों में यह देश में मनोरंजन का सशक्त साधन बनकर उभरा है। अब भारत में सिनेमा का व्यवसाय हर साल 13800 करोड़ से अधिक रुपये का है। इसमें लाखो लोगो को रोजगार मिला हुआ है। पूरे विश्व में भारत का सिनेमा उद्द्योग अमेरिका के उद्द्योग के बाद दूसरे नम्बर पर आता है।

सिनेमा का जीवन पर प्रभाव निबंध Essay on Impact of Cinema in Life Hindi

  • इससे फटाफट मनोरंजन मिलता है। मनोरंजन के अन्य साधनों जैसे किताब पढ़ना, खेलना, घूमना आदि में सिनेमा देखना सबसे सरल साधन है। एक अच्छी फिल्म देखकर हम अपनी मानसिक थकावट को दूर कर सकते हैं।
  • हमे नई नई जगहों के बारे में पता चलता है। जिन स्थानों पर हम नही जा पा पाते है सिनेमा की मदद से उनको घर बैठे देख सकते हैं।
  • यह जागरूकता बढ़ाने में मदद करता है। अब भारतीय सिनेमा वास्तविक घटनाओं को दिखा रहा है जैसे- माहवारी की समस्या पर बनी फिल्म “पैडमैन” जिसमे स्त्रियों की माहवारी से जुडी समस्याओं को प्रमुखता से दिखाया गया है। शौच के विषय पर “टॉयलेट” फिल्म बनी है जिसमे लोगो को बंद और पक्के टॉयलेट बनाकर शौच करने को प्रेरित किया गया है।
  • भारतीय संस्कृति और परम्परा को सिनेमा के माध्यम से दर्शाया जाता है। जैसे हाल में बनी “पद्मावत” फिल्म। इस तरह से हमे अपने देश के महान लोगो और स्वत्रंतता सेनानियों के बारे में पता चलता है।
    सिनेमा के द्वारा सामाजिक बुराइयां जैसे दहेज़, रिश्वत, बाल विवाह, सती प्रथा, कुपोषण, भ्रष्टाचार, किसानो की दुर्दशा, जातिवाद, छुआछूत, बालमजदूरी आदि पर फिल्म बनाकर जनमानस को जागरूक किया जा सकता हैं।
  • महापुरुषों के जीवन पर फिल्म बनाकर लोगो को उन्ही के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
    यह एक बड़ा उद्द्योग है जिसमे लाखो लोगो को रोजगार मिला हुआ है। इस तरह से सिनेमा रोजगार के अवसर भी उपलब्ध करवाता है।
  • इसके द्वारा शिक्षा का प्रचार प्रसार आसानी से किया जा सकता है।
  • यह समय बिताने का एक अच्छा विकल्प है।
  • विभिन्न देशो की संस्कृतियों, धर्म और समाज के बारे में जानकारी मिलती है।

सिनेमा से होने वाली हानियाँ Disadvantages of Cinema in India

  • कई बार सिनेमा में धूम्रपान, शराब पीने जैसे दृश्य दिखाये जाते है जो बच्चों और युवाओं के कोमल मन पर बुरा असर डालते हैं। बच्चा हो या युवा देखकर ही सीखते है। इसी तरह से वे कई बुरी बातो को सीख जाते हैं।
  • आजकल फिल्म निर्माता अधिक से अधिक मनोरंजन परोसने के चक्कर में चोरी, लूटपाट, हत्या, हिंसा, कुकर्म, बलात्कार, दूसरे अपराधों को बहुत अधिक दिखाने लगे है। इसका भी बुरा असर समाज पर पड़ रहा है। आये दिन अखबारों में हम पढ़ते है कि चोरो से किसी फिल्म को देखकर चोरी की नई तरकीब विकसित की और चोरी या लूट को अंजाम दिया। इस तरह से सिनेमा का बुरा पहलू भी है।
  • आजकल के विद्यार्थी अपनी पढ़ाई सही तरह से नही करते हैं। उनको सिनेमा देखने की बुरी लत लगी हुई है। कई विद्यार्थी स्कूल जाने का बहाना बनाकर सिनेमा देखने चले जाते है। इस तरह से उनकी पढ़ाई का बहुत नुकसान होता है।
  • आजकल सिनेमा में कई तरह के अश्लील, कामुक उत्तेजक दृश्य दिखाये जाते है जिससे युवाओं का नैतिक पतन हो रहा है। देश के युवा भी व्यभिचार, पोर्न फिल्म, और दूसरी अनैतिक कार्यो में लिप्त हो गये है। आज छोटे-छोटे बच्चे भी सिनेमा के माध्यम से सम्भोग के विषय में जान जाते हैं। इसलिए कामुक सिनेमा का प्रदर्शन बंद होना चाहिए।
  • यह दर्शक को स्वप्न दिखाता है और उसे वास्तविकता से दूर ले जाता हैं। अक्सर लोग सिनेमा देखकर भटक जाते हैं। वो हीरो, नायक की तरह कपड़े पहनने की कोशिश करते है, उसी तरह से महंगे कपड़े पहनना चाहते है। ऊँची जिंदगी जीना चाहते है, कारों में घूमना चाहते है। पर वास्तविक जीवन में ये सब सम्भव नही हो पाता है।
  • आज देश की लड़कियों और स्त्रियों पर सिनेमा का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। लड़कियाँ, औरते फैशन के नाम पर कम से कम कपड़े पहन रही है, अपने जिस्म की नुमाइश करती है जिससे आये दिन कोई न कोई अपराध होता है। सिनेमा की वजह से बदन दिखाऊ, जिस्म उघाड़ती पाश्चात्य सभ्यता देश के युवाओं पर हावी चुकी है।

चलचित्र का महत्व पर निबंध

 

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