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भोजन के महत्व के बारे में चाणक्य के विचार

भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर वरांगना । विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥
भोज्य पदाथ, भोजन-शक्ति, रतिशक्ति, सुन्दर स्त्री, वैभव तथा दान-शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्या का फल नहीं होते ।

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्। सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥
आचरण से व्यक्ति के कुल का परिचय मिलता है । बोली से देश का पता लगता है । आदर-सत्कार से प्रेम का तथा शरीर को देखकर व्यक्ति के भोजन का पता चलता है ।

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कुग्रामवासः कुलहीन सेवा कुभोजन क्रोधमुखी च भार्या। पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥
दुष्टों के गाँव में रहना, कुलहीन की सेवा, कुभोजन, कर्कशा पत्नी, मुर्ख पुत्र तथा विधवा पुत्री ये सब व्यक्ति को बिना आग के जला डालते हैं ।

अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्। दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्॥
जिस प्रकार बढ़िया-से बढ़िया भोजन बदहजमी में लाभ करने के स्थान में हानि पहुँचता है और विष का काम करता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास न रखने से शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान हो जाता है ।

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वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्। वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवापि च॥
जैसे समुद्र में वर्षा व्यर्थ है वैसे ही तृप्त को भोजन कराना व्यर्थ है । धनी को दान देना व्यर्थ है और दिन में दीपक व्यर्थ है।

धनधान्य प्रयोगेषु विद्या सङ्ग्रहेषु च। आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्॥
धन और अनाज के लेन – देन, विद्या प्राप्त करते समय, भोजन तथा आपसी व्यवहार में लज़्ज़ा न करनेवाला सुखी रहता है ।

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अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे तद् बलप्रदम्। भोजने चामृतं वारि भोजनान्तें विषप्रदम्॥
भोजन न पचने पर जल औषधि के समान होता है । भोजन करते समय जल अमृत है तथा भोजन के बाद विष का काम करता है ।

सर्वौषधीनामममृतं प्रधानं सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्। सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्॥
सभी औषधियों में अमृत (गिलोय) प्रधान है । सभी सुखों में भोजन प्रधान है । सभी इंद्रियों में आँखे मुख्य हैं । सभी अंगों में सर महत्वपूर्ण है ।

दरिद्रता धीरयता विराजते कुवस्त्रता स्वच्छतया विराजते। कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते॥
धीरज से निर्धनता भी सुन्दर लगती है, साफ रहने पर मामूली वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, गर्म किये जाने पर बासी भोजन भी सुन्दर जान पड़ता है और शील – स्वभाव से कुरूपता भी सुन्दर लगती है ।

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दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन । मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन॥
दान से ही हाथों की सुन्दरता है, न कि कंगन पहनने से, शरीर स्नान से ही शुद्ध होता है न कि चन्दन का लेप लगाने से, तृप्ति मान से होता है, न कि भोजन से, मोक्ष ज्ञान से मिलता है, न कि श्रृंगार से ।

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