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चाणक्य के अनमोल विचारों का खजाना Chanakya’ quotes in Hindi

चाणक्य के अनमोल विचारों का खजाना

इस पोस्ट में अनेक विषयों पर आचार्य चाणक्य के अनमोल विचारों का खजाना आपके लिए प्रस्तुत है. चाणक्य नीति के इन श्लोकों में आचार्य चाणक्य ने जीवन की परिस्थितियों में हमारे आचरण करने के अनेकों सरल एवं उपयोगी सुझाव बताये हैं जिन्हें आज भी अपना कर हम अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं.

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परीक्षा पर चाणक्य के अनमोल विचार

जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे। मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥
चाणक्य नीति विपत्ति के समय मित्र की परीक्षा होती हैकिसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।

वैद्य पर चाणक्य के अनमोल विचार

धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥
चाणक्य नीति जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न होजहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।

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बच्चों पर चाणक्य के अनमोल विचार

पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च। नैव गावं कुमारीं च न वृद्धं न शिशुं तथा॥
चाणक्य नीति आग, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुंआरी कन्या, बूढ़ों तथा बच्चों को पैर से नहीं छूना चाहिएआग, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुंआरी कन्या, बूढ़े लोग तथा बच्चों को पावं से नहीं छूना चाहिए । ऐसा करना असभ्यता है क्योंकि ये सभी आदरणीय , पूज्य और प्रिय होते हैं ।

आजीविका पर चाणक्य के अनमोल विचार

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥
चाणक्य नीति ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिएजिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।

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लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥
चाणक्य नीति ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता, दानशीलता तथा त्याग करने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।

क्लेश पर चाणक्य के अनमोल विचार

माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥
चाणक्य नीति जिसके घर में न माता हो और स्त्री क्लेश करने वाली हो , उसे वन में चले जाना चाहिएजिसके घर में न माता हो और स्त्री क्लेश करने वाली हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।

बलिदान पर चाणक्य के अनमोल विचार

आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि। आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥
चाणक्य नीति आत्मसम्मान की रक्षा का प्रश्न आने पर धन और पत्नी का बलिदानविपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए । किन्तु आत्मसम्मान की रक्षा का प्रश्न सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो नहीं चूकना चाहिए ।

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यौवन पर चाणक्य के अनमोल विचार

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम्। कष्टात्कष्टतरं चैव परगृहेनिवासनम् ॥
चाणक्य नीति किन्तु दूसरों के घर में रहना कष्टों का भी कष्ट है ।मूर्खता कष्ट है, यौवन भी कष्ट है, किन्तु दूसरों के घर में रहना कष्टों का भी कष्ट है ।

रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः। विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
रूप और यौवन से सम्पन्न, उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी विद्याहीन मनुष्य सुगन्धहीन फूल के समान होते हैं और शोभा नहीं देते |

सुन्दरता पर चाणक्य के अनमोल विचार

कोकिलानां स्वरो रूपं नारी रूपं पतिव्रतम्। विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥
कोयलों का रूप उनका स्वर है । पतिव्रता होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है। कुरूप लोगों का ज्ञान ही उनका रूप है तथा तपस्वियों का क्षमा- भाव ही उनका रूप है ।

अति रूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावणः। अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्॥
अधिक सुन्दरता के कारण ही सीता का हरण हुआ था, अति घमंडी हो जाने पर रावण मारा गया तथा अत्यन्त दानी होने से राजा बलि को छला गया । इसलिए अति सभी जगह वर्जित है ।

दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन । मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन॥
दान से ही हाथों की सुन्दरता है, न कि कंगन पहनने से, शरीर स्नान से ही शुद्ध होता है न कि चन्दन का लेप लगाने से, तृप्ति मान से होता है, न कि भोजन से, मोक्ष ज्ञान से मिलता है, न कि श्रृंगार से ।

लाभ-हानि पर चाणक्य के अनमोल विचार

अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्। दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्॥
जिस प्रकार बढ़िया-से बढ़िया भोजन बदहजमी में लाभ करने के स्थान में हानि पहुँचता है और विष का काम करता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास न रखने से शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान हो जाता है ।

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दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः। यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति ॥
दुराचारी, दुष्ट स्वभाववाला, बिना किसी कारण दूसरों को हानि पहुँचानेवाला तथा दुष्ट व्यक्ति से मित्रता रखने वाला श्रेष्ठ पुरुष भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते है क्यूोंकि संगति का प्रभाव बिना पड़े नहीं रहता है ।

विवाह पर चाणक्य के अनमोल विचार

वरयेत्कुलजां प्राज्ञो निरूपामपि कन्यकाम्। रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले ॥
बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह रूपवती न होने पर भी कुलीन कन्या से विवाह कर ले, किन्तु नीच कुल की कन्या यदि रूपवती तथा सुशील भी हो, तो उससे विवाह न करे । क्योँकि विवाह समान कुल में ही करनी चाहिए ।

परीक्षा पर चाणक्य के अनमोल विचार

सकुले योजयेत्कन्या पुत्रं पुत्रं विद्यासु योजयेत्। व्यसने योजयेच्छत्रुं मित्रं धर्मे नियोजयेत् ॥
कन्या का विवाह किसी अच्छे घर में करनी चाहिए, पुत्र को पढ़ाई-लिखाई में लगा देना चाहिए, मित्र को अच्छे कार्यो में तथा शत्रु को बुराइयों में लगा देना चाहिए । यही व्यवहारिकता है और समय की मांग भी ।

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आचरण, आदर-सत्कार पर चाणक्य के अनमोल विचार

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्। सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥
आचरण से व्यक्ति के कुल का परिचय मिलता है । बोली से देश का पता लगता है । आदर-सत्कार से प्रेम का तथा शरीर को देखकर व्यक्ति के भोजन का पता चलता है ।

पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च। नैव गावं कुमारीं च न वृद्धं न शिशुं तथा॥
आग, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुंआरी कन्या, बूढ़े लोग तथा बच्चों को पावं से नहीं छूना चाहिए । ऐसा करना असभ्यता है क्योंकि ये सभी आदरणीय , पूज्य और प्रिय होते हैं ।

प्रेम पर चाणक्य के अनमोल विचार

यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्तवा वसेत्सुखम्॥
जिसे किसी के प्रति प्रेम होता है उसे उसी से भय भी होता है, प्रीति दुःखो का आधार है । स्नेह ही सारे दुःखो का मूल है, अतः स्नेह- बन्धनों को तोड़कर सुखपूर्वक रहना चाहिए ।

सागर पर चाणक्य के अनमोल विचार

प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः। सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः॥
जिस सागर को हम इतना गम्भीर समझते हैं, प्रलय आने पर वह भी अपनी मर्यादा भूल जाता है और किनारों को तोड़कर जल-थल एक कर देता है ; परन्तु साधु अथवा श्रेठ व्यक्ति संकटों का पहाड़ टूटने पर भी श्रेठ मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता । अतः साधु पुरुष सागर से भी महान होता है ।

क्षमा पर चाणक्य के अनमोल विचार

कोकिलानां स्वरो रूपं नारी रूपं पतिव्रतम्। विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥
कोयलों का रूप उनका स्वर है । पतिव्रता होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है। कुरूप लोगों का ज्ञान ही उनका रूप है तथा तपस्वियों का क्षमा- भाव ही उनका रूप है ।

सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा। शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः॥
सत्य मेरी माता है, ज्ञान पिता है, भाई धर्म है, दया मित्र है, शान्ति पत्नी है तथा क्षमा पुत्र है, ये छः ही मेरी सगे- सम्बन्धी हैं ।

पाप पर चाणक्य के अनमोल विचार

राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः। भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्य पाप गुरुस्तथा॥
राष्ट द्वारा किये गए पाप को राजा भोगता है । राजा के पाप को उसका पुरोहित, पत्नी के पाप को पति तथा शिष्य के पाप को गुरु भोगता है ।

उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्। मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥
उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है । मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता ।

कलह पर चाणक्य के अनमोल विचार

 उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्। मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥
उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है । मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता ।

मूर्खाः यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसंचितम् । दाम्पत्योः कलहो नास्ति तत्र श्री स्वयमागता॥
जहां मूर्खों का सम्मान नहीं होता, अन्न का भण्डार भरा रहता है और पति-पत्नी में कलह नहीं हो, वहां लक्ष्मी स्वयं आती है ।

अहंकार पर चाणक्य के अनमोल विचार

दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥
मानव-मात्र में किभी भी अहंकार की भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि मानव को दान, तप, शूरता, विद्वता, शुशीलता और नीतिनिपुर्णता का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए । यह अहंकार ही मानव मात्र के दुःख का कारण बनता है और उसे ले डूबता है ।

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात्स्तब्धमञ्जलिकर्मणा। मूर्खश्छन्दानुरोधेन यथार्थवादेन पण्डितम्॥
लालची को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मुर्ख को उपदेश देकर तथा पण्डित को यथार्थ बात बताकर वश में करना चाहिए ।

व्यापार पर चाणक्य के अनमोल विचार

समाने शोभते प्रीती राज्ञि सेवा च शोभते। वाणिज्यं व्यवहारेषु स्त्री दिव्या शोभते गृहे ॥
समान स्तरवालों से ही मित्रता शोभा देती है । सेवा राजा की शोभा देती है । वैश्यों को व्यापार करना ही शोभा देता है । शुभ स्त्री घर की शोभा है

को हि भारः समर्थानां किं दूर व्यवसायिनाम्। को विदेश सुविद्यानां को परः प्रियवादिनम्॥
सामर्थ्यवान व्यक्ति को कोई वस्तु भारी नहीं होती । व्यापारियों के लिए कोई जगह दूर नहीं होती । विद्वान के लिए कहीं विदेश नहीं होता । मधुर बोलने वाले का कोई पराया नहीं होता ।

चाँद पर चाणक्य के अनमोल विचार

एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्वरः। एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्रशः॥
जिस प्रकार एक चाँद ही रात्रि के अन्धकार को दूर करता है, असंख्य तारे मिलकर भी रात्रि के गहन अन्धकार को दूर नहीं कर सकते, उसी प्रकार एक गुणी पुत्र ही अपने कुल का नाम रोशन करता है, उसे ऊंचा उठता है । सैकड़ों निकम्मे पुत्र मिलकर भी कुल की प्रतिष्ठा को ऊंचा नहीं उठा सकते ।

अकाल पर चाणक्य के अनमोल विचार

उपसर्गेऽन्यच्रके च दुर्भिक्षे च भयावहे। असाधुजनसम्पर्के पलायति स जीवति॥
उपद्रव या लड़ाई हो जाने पर, भयंकर अकाल पड़ जाने पर और दुष्टों का साथ मिलने पर भाग जाने वाला व्यक्ति ही जीता है ।

आयु पर चाणक्य के अनमोल विचार

आयुः कर्म वित्तञ्च विद्या निधनमेव च। पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः॥
आयु, कर्म, वित्त, विद्या, निधन ये पांचों चीजें प्राणी के भाग्य में तभी लिख दी जाती हैं, जब वह गर्भ में ही होते है ।

स्वास्थ्य पर चाणक्य के अनमोल विचार

यावत्स्वस्थो ह्यय देहः तावन्मृत्युश्च दूरतः। तावदात्महितं कुर्यात् प्रणान्ते किं करिष्यति॥
जब तक शरीर स्वस्थ है, तभी तक मृत्यु भी दूर रहती है । अतः तभी आत्मा का कल्याण कर लेना चाहिए । प्राणों का अन्त हो जाने पर क्या करेगा? केवल पश्चात्ताप ही शेष रहेगा ।

ईश्वर-भगवान पर चाणक्य के अनमोल विचार

काष्ठपाषाण धातुनां कृत्वा भावेन सेवनम्। श्रद्धया च तथा सिद्धिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः॥
काष्ट, पाषण या धातु की मूर्तियों की भी भावना और श्रद्धा से उपासना करने पर भगवान की कृपा से सिद्धि मिल जाती है।

न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये। भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्॥
ईश्वर न काष्ट में हैं, न मिट्टी में, न मूर्ति में । वह केवल भावना में रहता है । अतः भावना ही मुख्य है ।

त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥
दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।

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