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मुद्दे की बात – वन रैंक वन पेंशन का आंदोलन अब जबरदस्ती खींचा तो नहीं जा रहा ?

नरेंद्र मोदी की भाजपा सरकार ने वन रैंक वन पेंशन (OROP) की घोषणा कर दी है. जहां अधिकतर रिटायर्ड सैनिक सरकार के इस फैसले से संतुष्ट नजर आ रहे हैं वहीँ ऐसा लग रहा है कि जंतर मंतर पे धरने पर बैठे सेवा-निवृत्त फौजी भाई इस आंदोलन को अनावश्यक रूप से आगे खींच रहे हैं .
हमारी समझ से मुद्दे की बात ये थी –
1. वन रैंक वन पेंशन की घोषणा
2. एक निश्चित तिथि जिससे ये लागू होनी है (बैक डेट से )
3. एक तय समय सीमा में समीक्षा
3. वन रैंक वन पेंशन निर्धारण के लिए सामान्यतया स्वीकार करने योग्य फार्मूले की घोषणा, और
4. सरकार द्वारा इस हेतु आवश्यक फंड (धनराशि) की घोषणा और उसका प्रबंध

आज सरकार की घोषणा से ऐसा लगता है कि मुद्दे की मूल बातें मान ली गई है . इस के बाद मेजर जनरल सतबीर सिंह और उनके साथी इस मामले में अव्यवहारिक मांगें जोड़ रहे हैं .

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किसी भी सरकार के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी मुद्दे को हल ढूंढते समय यह ध्यान रखे कि कहीं एक समस्या को हल करते करते दूसरी कई और समस्याएं न उठ खड़ी हों . वन रैंक वन पेंशन का मामला भी ऐसा ही है. पेंशन सिर्फ सैनिकों को ही नहीं दी जाती, वरन तमाम अर्ध सैनिक बलों, केंद्रीय कर्मचारियों और अनेक अन्य विभागों के कार्मिकों को भी दी जाती है. आजकल कई प्रदेश सरकारें भी अपने कर्मचारियों के वेतन एवं पेंशन आदि का निर्धारण केंद्र सरकार के अनुसार करने लगी हैं. ऐसे में पेंशन का हर वर्ष निर्धारण न तो संभव है, न व्यवहारिक है.

साथ ही मेजर जनरल सतबीर सिंह और आंदोलन के अन्य नेताओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी आंदोलन एक सीमा से ज्यादा से चलने पर जनता की सहानुभूति खो देता है. अभी तक तो जनता पूर्व सैनिकों की मांग को जायज मान रही है पर कहीं ऐसा न हो कि धीरे धीरे जनता इन  लालची न मानने लगे.

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