दालान के वे दिन !
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वर्ष के सबसे काठिन्य दिनों में भी ,
बसंत में परिवेष्टित डूबा हुआ ,
न कुंठित न स्तम्भित
श्वास तरंगी प्रतिक्षण
शून्य में भी निरत रचने पर्वत श्रृंग को,
मातृभूमि रक्षा हिताय रण में ,
प्राणमय स्वर डूबा करता था !
अहा क्या वे दिन थे !
आज !
बैठा हुआ हूं दालान में ,
नितांत सूना –
निरवता से सन्निहित शांत ,
भूगोल , इतिहास के परिदृश्य
को दुहराते –
अप्रतिम शौर्य को गाते
मेरे होंठ कांपते हैं –
मैं नहीं हूं और कुछ
विरक्त , शाश्वत , प्रबुद्ध ।
किवाड़ पर हवाओं के वे गान
धीरे-धीरे सुना जाते –
श्रुतियों के क्षणिक उद्घोष
प्रचण्ड वीरता का जयघोष ,
पुनः सुना जाते –
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परिदृश्य के भयावह टंकारो को ,
आर्त्त घड़ियाल की कराहों को ;
लुटति – पीटती आहों को ,
दग्ध – झुलसती राहों को !
✍? आलोक पाण्डेय
वाराणसी,भारतभूमि
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