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तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो – अहमद फ़राज़ शायरी

तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो

तुम भी ख़फा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
अ़ब हो चला यकीं के बुरे हम हैं दोस्तो

किसको हमारे हाल से निस्बत हैं क्या करे
आखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो

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अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो

कुछ आज शाम ही से हैं दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चराग भी मद्धम हैं दोस्तो

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इस शहरे आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अ़ब दिल की रौनकें भी कोई दम हैं दोस्तो

सब कुछ सही “फ़राज़” पर इतना ज़रूर हैं
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो

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करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे

करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे

वो ख़ार-ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिन्द
मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे

ये लोग तज़्क़िरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे

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मगर वो ज़ूदफ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाये अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे

वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासिहो गँवाऊँ उसे

जो हमसफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है “फ़राज़”
अजब नहीं कि अगर याद भी न आऊँ उसे

(ख़ार-ख़ार=कँटीला, मानिन्द=भाँति, तज़्क़िरे=चर्चाएँ,
ज़ूदफ़रामोश=भुलक्कड़, ज़ूद-रंज=शीघ्र बुरा मान जाने
वाला, राहत-ए-जाँ=जीवन का सुख, नासिहो=उपदेशको,
सर-ए-मंज़िल=गंतव्यस्थल पर)

तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है

तू पास भी हो तो दिल बेक़रार अपना है
के हमको तेरा नहीं इंतज़ार अपना है

मिले कोई भी तेरा ज़िक्र छेड़ देते हैं
के जैसे सारा जहाँ राज़दार अपना है

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वो दूर हो तो बजा तर्क-ए-दोस्ती का ख़याल
वो सामने हो तो कब इख़्तियार अपना है

ज़माने भर के दुखों को लगा लिया दिल से
इस आसरे पे के इक ग़मगुसार अपना है

“फ़राज़” राहत-ए-जाँ भी वही है क्या कीजे
वो जिस के हाथ से सीनाफ़िग़ार अपना है

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