तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम
तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम
बेमुरव्वत नहीं तो क्या हैं हम
हम ग़मे-क़ारवाँ में बैठे थे
लोग समझे शिकस्ता-पा हैं हम
इस तरह से हमें रक़ीब मिले
जैसे मुद्दत के आश्ना हैं हम
राख हैं हम अगर ये आग बुझी
जुज़ ग़मे-दोस्त और क्या हैं हम
ख़ुद को सुनते हैं इस तरह जैसे
वक़्त की आख़िरी सदा हैं हम
क्यों ज़माने को दें ‘फ़राज़’ इल्ज़ाम
वो नहीं हैं तो बे-वफ़ा हैं हम
(बेमुरव्वत=निष्ठुर, ग़मे-क़ारवाँ=यात्री-दल
का दु:ख, शिकस्ता-पा=थके हुए, रक़ीब=
प्रतिद्वन्द्वी, आश्ना=परिचित, सदा=आवाज़)
तुझे उदास किया ख़ुद भी सोग़वार हुए
तुझे उदास किया ख़ुद भी सोगवार हुए
हम आप अपनी महब्बत में शर्मसार हुए
बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को
पलट के देखना चाहा कि ख़ुद ग़ुबार हुए
गिला उसी का किया जिससे तुझ पे हर्फ़ आया
वगरना यूँ तो सितम हम प’ बे-शुमार हुए
ये इंतकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी
जो लोग दुश्मने-जाँ थे वो ग़मगुसार हुए
हज़ार बार किया तर्क़े-दोस्ती का ख़याल
मगर ‘फ़राज़’ पशेमाँ हरेक बार हुए
(नदीमाने-आबला-पा=पाँव के छाले वालों के
पास बैठने वाला, हर्फ़ आया=इल्ज़ाम आया,
वगरना=अन्यथा, इंतकाम=बदला, तर्क़े-दोस्ती=
मित्रता तोड़ना, पशेमाँ=लज्जित)