स्त्री की सीमा रेखायें
नदी के तट पर जमी रेत मिट्टी की तरह
कितना कुछ दे जाती हो
उपजाऊ सा
स्री
और बढ़ जाती हो
अपनी रौ में आने वाली पीढ़ियों को
आशायें देने
कितना कुछ सहती हो इस सफ़र में
नदी की धाराओं की तरह
अपने शरीर से अलग करती हो
एक और शरीर
और भर देती हो उसकी जड़ों में उपजाऊ मिट्टी
स्री
आहत होती हो तो करती हो क्रन्दन
उफ़न जाती हो नदी की तरह
कर जाती हो अनाथ , निराश्रित , विपन्न
पीढ़ियों को
दे जाती हो सबक
शान्त अविरल बहने वाली स्त्री
की सीमा रेखायें तय होती हैं———
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~ कनक सिंह (कनु)
https://www.facebook.com/kanak.singh.18847
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