लगभग एक हजार साल पहले की बात है। शहर बगदाद के कैदखाने से एक कैदी भाग निकला। वह एक चोर था। उसका एक हाथ कटा हुआ था। तब बगदाद में चोरी करने वाले का हाथ काट दिया जाता था। मगर इतनी सख्त सजा के बावजूद भी वह अपनी चोरी की आदत छोड़ नहीं पाया था। उसका नाम इब्ने साबात था।
मौका पाकर वह एक बड़े मकान में घुस गया, जिसके दरवाजे खुल हुए थे- वह उस मकान में चला तो आया। परंतु उसे यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि मकान में न तो कीमती सामान था और न सजावट की चीजें। बस एक बड़े हाल से एक तरफ कुछ बोरियां और चमड़े का तकिया रखा हुआ था और दूसरी तरफ सस्ती ऊन के थान।
साबात की निगाह ऊन के थानों पर टिक गई, चलो कुछ तो मिला- यह सोचकर वह जल्दी जल्दी उन थानों को एक गठरी में बांधने की कोशिश करने लगा, लेकिन कामयाब न हो सका, क्योंकि उसका एक हाथ कटा हुआ था।
उसी समय एक अजनबी हाल में आया, जिसे देखकर चोर घबरा गया। लेकिन अजनबी ने उसे सांत्वना दी और खुद आगे बढ़कर उसकी सहायता करने लगा।
चिराग की धीमी रोशनी में भी उस अजनबी का चेहरा चमकता दमकता दिखाई दे रहा था। सौम्य और शांत। जबकि साबात के मारे घबराहट के पसीने छूट रहे थे। दो गठरियां बनाने के बाद अजनबी ने साबात के चेहरे का पसीना पोंछा और उसे दिलासा दिया।
इसके बाद अजनबी ने छोटी गठरी साबात को सौंपी और खुद बड़ी गठरी उठाकर चलने लगा। साबात यह समझ बैठा कि यह भी उसकी तरह चोर है। वह उसी क्षण बोला, ”तुम चाहो तो मेरे हिस्सेदार बन सकते हो। लेकिन इतना सारा माल मैं तुम्हें अकेले ही हड़पने न दूंगा।“
इस पर अजनबी मुस्करा पड़ा, ”तुम्हारी बात मुझे पसंद आई। मैं चाहता हूं कि तुम हमेशा के लिए मेरे हिस्सेदार बन जाओ।“
”ठीक है, चलो।“ साबात अजनबी की बातों को ठीक से समझ न पाया। इतना जरूर समझ गया कि यह शख्स बेईमान साबित नहीं होगा।
अजनबी ने भारी गठरी ले तो ली, लेकिन उतना बोझ उठाने की ताकत उसमें न थी। वह एक बूढ़ा और कमजोर व्यक्ति था। उसके पांव कांप रहे थे। इधर साबात जल्द से जल्द अपनी मंजिल तक पहुंच जाना चाहता था। लेकिन अपने बूढ़े साथी की वजह से मजबूर था। वह उसे तेज चलने को कहता और बूढ़ा हांफता हांफता कहता, ”आ रहा हूं, बाबा।“
एक जगह अजनबी हांफता हुआ लड़खड़ाकर गिर पड़ा। साबात को गुस्सा आ गया। उसके लात रसीद करते हुए वह बोला, ”बूढ़े! क्या इसी बूते पर तू मेरा हिस्सेदार बनना चाहता है।“
अजनबी बड़ा लज्जित हुआ और किसी तरह उसके कदम से कदम मिलाने की कोशिश करने लगा। जब दोनों साबात की मंजिल पर पहुंच गए तो अजनबी ने कहा, ”भाई माफ करना। मेरी कमजोरी की वजह से तुम्हें परेशान होना पड़ा।“
”ठीक है, ठीक है।“ साबात ने उपेक्षा से कहा, ”बताओ, तुम्हें कितना माल चाहिए। घबराओ नहीं, मैंने वायदा किया है और एक चोर होता तो तुम्हें ले जाने क्यों देता?“
”क्या?“ साबात ने चकराकर पूछा।
”हां, भाई!“ अजनबी फिर बोला, ”ये सारी ऊन मेरी है। जिस मकान से ये ऊन तुम उठाकर लाए हो, वह भी मेरा है। लेकिन मुझे अफसोस है कि मैं तुम्हारी ज्यादा सेवा न कर सका। आइंदा जब भी तुम चाहो मेरे घर मेहमान बनकर आ सकते हो। मुझे खुशी होगी।“
इतना कहकर अजनबी ने साबात से हाथ मिलाया और उसे दुआएं देता हुआ चला गया।
साबात अजनबी के रवैये से बड़ा हैरान हुआ, उसने सोचा, ‘हो न हो यह आदमी पागल है। खैर जो भी हो, माल तो सौंप गया।’
पर जिज्ञासा ने उसे शांति से बैठने न दिया। दूसरे दिन सुबह ही वह उस घर के पास जा पहुंचा जहां पिछली रात उसने चोरी की थी। पड़ोस में एक लकड़हारे का घर था। उसने उससे पूछा, ”क्यों भाई, यहां कौन रहता है?“
”शेख जुनैद बगदादी।“ लकड़हारे ने जवाब दिया।
यह सुनना था कि उसके हाथों के तोते उड़ गए। शेख जुनैदी बगदादी की शोहरत तो उसने भी सुन रखी थी। लेकिन उन्हें देखने का कभी अवसर नहीं मिला था। शेख जुनैद बगदादी बहुत बड़े संत थे।
हाय! तूने ये क्या किया। शाबात पश्चाताप में अपने गाल पर तमाचे मारते हुए बोला और लपककर उस मकान में दाखिल हो गया।
”शेख साहब! मुझे माफ कर दीजिए। मुझसे अनजाने में भूल हो गई। मैं आपका गुनहगार हूं। मुझे सजा दीजिए।“ वह शेख बगदादी के कदमों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगा, मगर शेख साहब ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, ”तुम हमेशा के लिए मुझसे साझेदारी कर लो।“ उसी दिन साबात शेख साहब का शिष्य बन गया और आगे चलकर काफी मशहूर हुआ शेख अहमद इब्ने साबात के नाम से।