मुज़फ्फरनगर दंगों की आंच अभी ठंडी नहीं पड़ी है। सैकड़ों घर उजड़ चुके हैं और हजारों आँखें उस इन्साफ की राह देखती पथरा चुकी हैं जिसके आने की सम्भावना अब दूर दूर तक भी दिखाई नहीं देती। इतना ही नहीं, दिलों में आई खटास अब इतना खतरनाक रूप ले चुकी है कि फेसबुक पर आई एक पोस्ट, व्हट्सऐप पर आया एक मैसेज और लाउडस्पीकर से होता एक एनाउंसमेंट सामाजिक समरसता और सौहाद्र के ऊपर हावी हो कर इंसान को हैवान बना देता है। इंसान के हैवान बनने की इसी कड़ी में ताजा घटना दादरी के पास के गांव बिसाहड़ा की है जहाँ मोहम्मद अख़लाक़ को उसके घर से बाहर निकाल कर भीड़ द्वारा इसलिए पीट पीट कर मार डाला गया क्यूंकि लोगों को यह शक था कि उसके घर में गाय का मांस रखा है। उसका बेटा भी गंभीर रूप से घायल है और अस्पताल में है।
लेकिन और भी कुछ है जो नहीं होना चाहिए था। परिवार सदमें में है। बच्चों की आँखों में डर हैं। भविष्य की अनिश्चितता है। गाँव में अफवाहें हैं। हिन्दू-मुस्लिम राजनीति की शुरुआत है। नेताओं की भीड़ है। भाषण हैं। सहानुभूति है। मीडिया है। टी आर पी है। रात नौ बजे प्राइम टाइम की खबर है। और सबसे बढ़ कर चुनावों की आहट है।
खैर, मुद्दे पर आते हैं। बात गौ-हत्या से शुरू हुई या गौ-हत्या होने की अफवाह से शुरू हुई। एक राजपूत बहुल गाँव में एकमात्र मुस्लिम परिवार एक सॉफ्ट टारगेट है। बिना रिस्क के हमला किया जा सकता है। ज्यादा जान-माल के नुक्सान का ख़तरा नहीं है। तथाकथित “प्रताप सेना” इस प्रकार सदियों पहले हुए प्रताप – अकबर संघर्ष गाथा में एक नया अध्याय जोड़ने की संतुष्टि प्राप्त कर सकती है। भगवा ध्वज उदय के नए-नए समर्थकों को गहरी आत्म संतुष्टि मिल सकती है।
मुस्लिम समाज के फर्माबरदारों को कट्टरपंथ की नयी जमीन मिल रही है। कुछ सालों से नयी इल्म की नई रौशनी में अपने आर्थिक और सामाजिक हालात को सुधारते हुए क़दमों को वापस जकड़ने का सुनहरा अवसर हाथ लगा है। ऐसे हालात में कौन है भला जो मुस्लिम महिलाओं के हक़ में तरक्की की आवाज बुलंद करे?
ग़ज़ब का राजनीतिक संतुलन साधा गया है पिछले दो-एक साल में दोनों कौमों के रहनुमाओं द्वारा। अरे मियाँ, यहां जान खतरे में है, उधर ईमान खतरे में है और तुम हो कि ख्वामख्वाह के मुद्दे लिए बैठे हो। ये वक़्त भूखे रहकर भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ने का है। ये वक़्त सैकड़ों सालों से चले आ रहे अमन-चैन को भुला कर कट्टरवाद के खेमे में जा मिलने का है। ये वक़्त बहुत बुलंदी से अपनी आवाज उठाने का है। ये वक़्त फेसबुक पर वैमनस्य फैलाने का है। यह वक़्त व्हट्सऐप पर जहर बोने का है। यह वक़्त यू-ट्यूब पर नफ़रत नुमाया करने का है।
मैं तकलीफ में हूँ। और इस इंतज़ार में हूँ कब फतवा जारी होगा कि मुहम्मद रफ़ी और लता के युगल गाने सुनने-सुनाने वालों को काफ़िर ठहराया जायेगा। कब लता मंगेशकर को कहा जाएगा कि वह रफ़ी के साथ गाये गानों के लिए सरे-आम माफ़ी मांगें, कब अब्दुल हमीद का नाम शहीदों की लिस्ट में से काटा जायेगा और कब ऐसा होगा कि मंगल पर यान भेजने के लिए बजती तालियों में से डाक्टर एपीजे कलाम की गूँज निकाल कर फेंक दी जाएगी।
वक़्त कम बचा है मेरे पास शायद। “मन तरपत हरिदर्शन को आज सुन” लेता हूँ कहीं शक़ील साहब, रफ़ी साहब और नौशाद साहब के खिलाफ भजन गाने के नाम पर वारंट न निकल जाये। वैसे अच्छा हुआ कि ये दिन देखने से पहले मर-खप गए तीनों। धार्मिक मामलों में दखलंदाजी अच्छी बात नहीं है न।