मीराबाई पर लघु निबंध (Hindy essay on Meerabai)
कृष्ण भक्ति काव्यधारा की कवयित्रियों में मीराबाई का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। मीराबाई का जन्म सन् 1503 में राजस्थान के मारवाड़ जिलान्तर्गत मेवात में हुआ था। कहा जाता है कि बचपन में एक बार मीराबाई ने खेल ही खेल में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को हदय से लगाकर उसे अपना दूल्हा मान लिया। तभी से मीराबाई आजीवन अपने पति की रूप में श्रीकृष्ण को मानते हुए उन्हें प्रसन्न करने के लिए मधुर मधुर गीत गाती रही। श्रीकृष्ण को पति मानकर सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देने वाली मीराबाई को जीवन में अनेकाने कष्ट झेलने पड़े थें, फिर भी मीराबाई ने अपनी इस अटल भक्ति भावना का निर्वाह करने से कभी भी मुख नहीं मोड़ा।
मीराबाई का संसार लौकिक न होकर पारलौकिक था। यद्यपि मीराबाई के आरम्भिक जीवन में लौकिक जीवन जीना पड़ा था। फिर भी पति भोजराज की अल्पायु में मृत्यु हो जाने के कारण मीराबाई का मन वैरागी बन गया। मीराबाई को सामाजिक बाधाओं और कठिनाइयों को झेलते हुए अपने आराध्य देव श्रीकृष्ण की बार बार शरण लेनी पड़ी थी। जीवन के अन्तिम समय अर्थात् मृत्यु सन् 1546 तक मीराबाई को विभिन्न प्रकार की साधना करनी पड़ी थी।
मीराबाई द्वारा रचित काव्य रूप का जब हम अध्ययन करते हैं तो हम यह देखते हैं कि मीराबाई का हदय पक्ष काव्य के विविध स्वरूपों से प्रवाहित है। इसमे सरलता और स्वच्छन्दता है। उसमें भक्ति की विविध भाव भांगिमाएँ हैं। उसमें आत्मानुभूति है और एक निष्ठता की तीव्रता है। मीराबाई श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका होने के कारण और किसी को तनिक भी कुछ नहीं समझती हें। वे तो मात्र श्रीकृष्ण का ही ध्यान करने वाली हैं। वे श्रीकृष्ण की मनोहर मूर्ति को अपने हदय में बसायी हुई हैं-
मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरा न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरी पति सोई।
मीराबाई की काव्यांनुभूति आत्मनिष्ठ और अनन्नय है। उसमें सहजता के साथ गंभीरता है। यह अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण के पति सर्व-समर्पण के भाव से अपने को सर्वथा प्रस्तुत करती है।
कृष्ण की मोहनी मूर्ति तो उनकी आँखों से अमिट रूप से हैं-
बसो मेरे नयनन में नंदलाल।
मोर मुकुट मकराकृत, अरून तिलक दिए भाल।
मोहन मूरति सावली सूरति, नैना बने बिसाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उत बैजन्ती माल।
छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भगत बछल गोपाल।
मीराबाई की काव्य साधना में अन्य भक्त कवियों की तरह गुरू महिमोल्लेख है। मीराबाई ने अपने इष्ट का नाम अपने सद्गुरू की कृपा से ही प्राप्त किया है। सद्गुरू सत् की नाव को पार लगाने वाला केवट है। वही इस भाव सागर से पार लगा सकता है। इसी सद्गुरू की कृपा पर मीराबाई को अटूट विश्वास हैं-
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरू, किरपा करि अपनायो।
जन्म जन्म की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरचै न हिं, कोई चोर न लेवै, दिन दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव, खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, हरख, हरख, जस गायो।
मीराबाई की भक्ति काव्य रचना संसार लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ और रोचक हैं, मीराबाई की काव्य रचना सूत्र तो लौकिक प्रतीकों और रूपकों से बुना हुआ है। लेकिन उसका उदेश्य पारलौकिक चिन्तनधारा के अनुकूल है। इसीलिए वह दोनों ही दृष्टियों से अपनाने योग्य है। वह इसीलिए रूचिपूर्ण है और हदयस्पर्शी भी। मीराबाई के काव्य के भावपक्ष के अन्तर्गत यही भी भाव विशेष का दर्शन या अनुभव हमें प्राप्त होता है कि वे कृष्ण के वियोग में बहुत विरहाकुल अवस्था को प्राप्त हो चुकी है- श्रीकृष्ण के दर्शन की तीव्र कामना और उमंग मीराबाई के अन्दर किस प्रकार से है, इसका एक उदाहरण देखिए-
स्याम मिलन रे काज सखी, उर आरत जागी।
तलफ तलफ कलणा पडाँ, विरहनल लागी।
निसिदिन पंथ निहारां पिवरो, पलकणा पलभर लागी।
पीव पीव म्हाँ रटाँ रैण दिन, लोक लाज कुल त्यागी।
बिरह भवंगम डस्याँ कलेजा लहर हलाहल जागी।
मीराँ व्याकुल अति अकुलाणी, स्याम उमंगा लागो।
जब वियोगाकुल की आग धधकने लगती है और सहनीय हो जाती है, तब मीराबाई की यह अभिव्यक्ति अत्यन्त मार्मिक और सजीव हो उठती है। योगी कृष्ण को प्रियतम बनाने पर और उससे बिछुड़ जाने पर मीराबाई अपने मनः स्थिति को अपनी प्रिय सखी से बड़े ही यथार्थ रूप में कहती हैं-
जोगिया से प्रीत किया दुख होई।
प्रीत किया सुख ना मोरी सजनी, जोगी मिट न कोई।
रात दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलियाँ बिनि मोई।
ऐसी सूरत या जग मोंही, फेरि न देखी सोई।
मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, निक्तियाँ आँणद होई।।
मीराबाई का काव्यस्वरूप का कलापक्ष का सौष्ठव भाषा की विविधता से कहीं सरस, सुबोध और कहीं जटिल तथा दूर्बोध है। इसका मुख्य कारण है- मीरा की भाषा के प्रयोग की विविधता, और शैली की असमानता। मीराबाई की भाषा में ब्रजभाषा, राजस्थानी, पंजाबी खड़ी बोली, गुजराती आदि भाषाओं के शब्द प्रयुक्त हैं, जो कहीं सहजतापूर्वक हैं तो कहीं अतीव दुर्बोध भी हैं। सहज भाषा शैली का एक प्रयोग देखिए-
यही विधि भक्ति कैसे होय।
मन को मैरन हियते न छूटी, दियो तिलक सिर धोया।।
अथवा
मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।।
दुर्बोध भाषा शैली का एक उदाहरण प्रस्तुत हैं-
सुण्यारी म्हारे हरि आवेगा आज।
म्हैलाँ चढ़ चढ़ जोवाँ सजनी कब आवाँ महराज।।
इस प्रकार की भाषा शैली के अन्तर्गत मीराबाई के कहावतों और मुहावरे के लोक प्रचलित स्वरूपों को अपनाया है। अलंकारों और रसों का समुचित प्रयोग किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मीराबाई एक सहज और सरल भक्तिधारा के स्रोत से उत्पन्न हुई विरहिणी कवियित्री है। उनकी रचना संसार से आज भी अनेक काव्य रचियता प्रभावित हैं। भक्ति काल की इस असाधारण कवयित्री से आधुनिक काल में महादेवी वर्मा इतनी प्रभावित हुई कि उन्हें आधुनिक युग की मीरा की संज्ञा प्रदान की गई। इस प्रकार मीराबाई का प्रभाव अद्भुत है।