Mat Kijiye Ye Kaam Varna Markar Milegi Pret Yoni, Bhatkengi Ban Kar Pishach
हर धर्म में ऊपरी हवाओं के होने की बात कही गई है। हिन्दू धर्म में इन्हें भूत-प्रेत या आत्माओं का नाम दिया जाता है, ईसाई धर्म में स्पिरिट्स कहा जाता है और इस्लाम में जिन्न-जिन्नात के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है।
सामान्य मान्यता के अनुसार अतृप्त इच्छाओं की वजह से व्यक्ति को मृत्यु पर्यंत भी शांति नहीं मिलती और उसकी आत्मा भटकती रहती है।
शास्त्रों में प्रेत योनि मिलने का एक और कारण भी दर्ज है और वो है “कर्म”। इंसान के कर्म उसे राजा भी बनाते हैं और उससे राजपाट सब छीन कर अर्श से फर्श पर भी ले आते हैं।
कहा जाता है कि जीवनकाल में अपने माता-पिता की अवहेलना करने वाले, दुष्ट प्रवृत्ति वाले, बुरे कार्यों में लिप्त व्यक्ति की आत्मा शरीर त्यागने के बाद भी इसी भूलोक पर भटकती रहती है।
ऐसी अतृप्त और भटकती आत्माओं को प्रेत कहा जाता है और इस योनि को प्रेत योनि। आज हम आपको एक ऐसी ही कहानी सुनाने जा रहे हैं जो प्रेत योनि में पहुंची एक आत्मा से जुड़ी है।
श्रीमदभागवत में दर्ज इस कहानी को पढ़कर आपको समझ आएगा कि कैसे कोई आत्मा, प्रेत योनि में पहुंचती है और अगर वह उस योनि से मुक्ति चाहती है तो उसे क्या करना पड़ता है। कहानी कुछ इस प्रकार से है:
लंबी तपस्या करने के बाद जब गोकर्ण वापस अपने घर आता है तो वह देखता है कि उसका घर एकदम वीरान हो गया है। भीतर प्रवेश करने के बाद उसने देखा कि चारो तरफ सब सुनसान है और सब खाली पड़ा हुआ है।
किसी तरह उसने रात में अपने घर में रुकने के लिए व्यवस्था की। वह सो रहा था कि अचानक उसे अजीब आवाजें आने लगीं, जैसे कोई जानवर तेजी से भाग रहा हो, उसे उल्लू और बिल्ली के रोने की आवाजें भी सुनाई देने लगीं।
गोकर्ण समझ गया कि उसके घर में कोई असंतुष्ट आत्मा मौजूद है। वह जोर से चिल्लाया “कौन हो तुम, यहां क्या कर रही हो?”
गोकर्ण की आवाज के बाद अचानक किसी के रोने की आवाज आने लगी। कुछ दिखाई तो नहीं दे रहा था, लेकिन रोने की आवाज बहुत तेज-तेज आ रही थी।
इतने में आवाज आई “गोकर्ण, मैं तुम्हारा भाई धुंधकारी हूं, मैं बहुत परेशान हूं। बहुत कष्ट में हूं, भूख लगती है पर कुछ खा नहीं पाता, प्यास लगती है पर पानी तक नहीं पी पाता, शरीर नहीं है पर ऐसा महसूस होता है जैसे मैं जल रहा हूं। मैं एक प्रेत बन गया हूं, मेरी सहायता करो”।
गोकर्ण ने उस प्रेत से कहा “भाई धुंधकारी, तुम यहां कैसे भटक रहे हो, मैंने खुद तुम्हारा पिंडदान किया है।
धुंधकारी ने कहा “अपने जीवनकाल में मैंने पिताजी को बहुत तंग किया, जिसकी वजह से वह वन में चले गए, उनके जाने के बाद मैं अपनी अनैतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए मां से पैसे लेता था। जब मां नहीं देती थी तो उन्हें मारता भी था। मेरे बुरे व्यवहार से मां बहुत निराश थी, उन्होंने कुएं में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली।“
फिर गोकर्ण बोला “जिसने अपने माता-पिता को इतना परेशान किया हो, क्या मात्र पिंडदान करने के बाद उसकी आत्मा का भला हो सकता है? नहीं, अब तुम्हें ही मेरी सहायता करनी होगी”।
अपने भाई धुंधकारी को इस योनि से कैसे मुक्ति दिलवाई जा सकती है, इसके लिए गोकर्ण ने सूर्य देव से सलाह ली।
सूर्य देव ने कहा कि धुंधकारी की आत्मा का कल्याण श्रीमदभागवत या सिर्फ श्रीकृष्ण की कथा सुनकर ही संभव है।
सूर्यदेव की सलाह पर गोकर्ण ने गांव के सभी लोगों को इकट्ठा किया और श्रीमद भागवत कथा का आयोजन किया।
जिस स्थान पर श्रीमदभागवत का पाठ किया जा रहा था, गोकर्ण ने वहां एक बांस भी लगवा दिया जिसमें धुंधकारी रहने लगा। बांस के भीतर रहकर धुंधकारी ने श्रीमदभागवत कथा का श्रवण किया और अपने बुरे कर्मों की वजह से जिस प्रेत योनि में वो अटक गया था उससे मुक्ति पाई।
आप खुद ही सोचिए कि माता-पिता, जिन्होंने हमें जीवन दिया, हमें लाड-प्यार से पाला, हमारी हर जरूरत का ध्यान रखा, उन्हें जीवनभर तंग करने वाले व्यक्ति को मुक्ति कैसे मिल सकती है!!