कविवर बिहारी पर लघु निबंध (Hindi essay on Poet Bihari)
रीतिकाल ने नख शिख वर्णन करने वाले कवियों में कविवर बिहारी का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। कविवर बिहारी का एक मात्र अमर काव्य तो विश्व की एक ऐसी श्रृंगारपूर्ण काव्य रचना है। उसकी तुलना में और कोई ग्रन्थ नहीं मिलता है। कविवर बिहारी का महत्व आज भी इसी काव्य रचना के फलस्वरूप है।
कविवर बिहारी का जन्म संवत् 1660 में हुआ था और मृत्यु संवत् 1720 में हुई थी। आपका जन्म ग्वालियर राज्य के बसुआ गोविन्दपुर स्थान में हुआ था। आपका बचपन बुन्देलखण्ड और युवावस्था विवाहोपरान्त ससुराल मथुरा में बीती थी। आप आमेर के महाराजा जयसिंह के दरबारी कवि थे। कहा जाता है कि महाराज जयसिंह अपनी नव नवेली महारानी के प्रेमपाष में इतने आबद्ध हो चुके थे कि वे न महल से बाहर निकलते थे और न राज काज ही देखा करते थे। कविवर बिहारी को यह जानकारी कुछ गुप्तचरों से मिल गयी। कविवर बिहारी ने राजा के इस प्रेसोन्माद का दर्शन करने की जिज्ञासा की लेकिन जब उसे महाराजा की इस बेबस स्थिति का पता चला, तब उसने झटपट एक श्रृंगार रस से सिंचित यह दोहा लिखकर महाराज जयसिंह के पास निकटवर्ती सेवकों से भेजवा दिया-
नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली कली ही सौं बच्चो, आगे कौन हवाल।।
इस दोहे को पढ़कर महाराज जयसिंह अपनी स्थिति का पूरा ज्ञान हो गया। महाराज ने कविवर बिहारी को इसी प्रकार से और दोहों की रचना करने का आदेश दिया और कविवर को अपने राज दरबारी कवियों में सबसे ऊँचा पद प्रदान कर दिया।
कविवर बिहारी ने सतसई काव्य ग्रन्थ के अतिरिक्त और किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की। सतसई काव्य ग्रन्थ ही उनकी अमर काव्य कृति है। इस काव्य ग्रन्थ में सात सौ दोहे हैं। इनमें श्रृंगार रस से भरे हुए अधिक दोहे हैं। इनमें श्रृंगार रस के दोनों अंगों अर्थात् संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार का वर्णन कविवर बिहारी ने बड़े ही भावपूर्ण शब्दों के द्वारा किया है। श्रृंगार रस के अंतर्गत नायक और नायिका के परस्पर मिलन, रीझ, लज्जा, संकोच या मिलने पर भी अनेक प्रकार के नाज नखरे का वर्णन कविवर बिहारी ने बड़े ही रोचक रूप में किया है- एक दो उदाहरण देखिए-
वतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाइ।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नटि जाइ।।
कहत नटत रीझत-खीझत, मिलत जुलत लजियात।
भरै भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात।
नायक को प्रेम में पगी हुई नायिका की प्रेम की अनुभूति के सिवाय और कुछ सूझता ही नहीं है। वह तो अपनी प्रेमिका की प्रत्येक छोटी छोटी वस्तुओं में भी अपने प्रेम को दिखाता चलता है। नायक की ही तरह नायिका का भी प्रेम अपने नायक के प्रति बार बार झलकता रहता है। वह तो अपने प्रेमी पतंग की परछाई को स्पर्श करके भी अधिक आनंदित हो उठती है।
उड़त गुड़ी लखि ललन की,
अंगना अंगना माँह।
बौरी लौ दौरी फिरती,
छुअत छबीली छाँह।।
क्विवर बिहारी का संयोग श्रृंगार वर्णन जिस प्रकार से मन को बाग बाद कर देने वाला है, उसी प्रकार से उनका वियोग श्रृंगार वर्णन भी अत्यधिक मर्मस्पर्शी हो उठा है। उसमें भावों की तीव्रता और गति है। यद्यपि इस प्रकार के वर्णन अतिषयोक्ति अलंकार में ही प्रस्तुत हुए हैं, फिर भी वे रोचक और आनंददायक हैं। इस प्रकार के वियोग श्रृंगार का वर्णन करते हुए कवि ने एक जगह नायिका के वियोग की दशा का बहुत अद्भुत और गहरा चित्र खींचा है। नायिका विरह की गर्मी से झुलस गई है। वह इतनी विरह से जल रही है कि उसकी सखियाँ शिशिर की रात में भी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं कर पा रही है। अगर वे उसके पास जाने की हिम्मत भी करती हैं, तो गीले वस्त्र लपेटकर उसके पास जा पाती हैं-
आड़े दे आड़े बसन, जाड़े हूँ की राति।
साहस करके सनेह बस, सखी सबै डिग जाति।।
वह विरह वियोग से जली भुनी नायिका इतनी दुबली पतली और शक्तिहीन हो गयी हैं कि उसकी साँस लेने के साथ हवा के झोंकों में जैसे कोई तिनका उड़ रहा है। इस तरह वह साँस लेने के साथ छ सात इधर उधर हिंडोरे से आ जा रही है-
इति आवत चलि जात उत, चली छ सातक हाथ।
चढ़ा हिंडोरे सी रहै, लगी उसासन हाथ।।
श्रृंगार रस के अतिरिक्त कविवर बिहारी ने नीतिपूर्ण दोहों की भी रचनाएँ की हैं। कविवर बिहारी ने अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह के प्रति अन्योक्ति की रचना की है। महाराज जयसिंह को सम्बोधित करते हुए कवि ने लिखा है ‘हे महाराज! आप शाहजहाँ का पक्ष लेकर हिन्दुओं को क्यों दुखी कर रहे हैं। इसमें भला आपका क्या स्वार्थ है?’
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि पर, तू पच्छिन न मारि।।
कविवर बिहारी ने अपनी प्रतिभा का परिचय त्योतिश, गणित, दर्शन और विज्ञान में भली भाँति दिया है।
कविवर बिहारी ने भक्ति भावना की प्रतिष्ठा को बड़े ही सरस और सुबोध शब्दों के द्वारा करके सारगर्भित रूप में प्रस्तुत किया है-
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परै, स्याम हरित दुति होय।
मोर मुकुट कटिकाछनि, कर मुरली उर भाल।
यही बनिक मो मन बसौ, सदा बिहारी लाल।
संसार में आडम्बरों पर प्रहार करते हुए कवि ने मन को सच्ची दशा में लाकर ईश्वर ध्यान की शिक्षा भी दी है-
जप माला, छाया तिलक, सरै न एको कामु।
मन काँचै नाचै वृथा, साँचे राँचै रामू।।
कविवर बिहारी का मूल्यांकन करते हुए किसी कवि की यह सुन्दर उक्ति बहुत ही सटीक है-
सत सइया के दोहरे, ज्यों नाविक के तीर।
देखत में छोटे लगें, घाव करै गंभीर।