मास्टर सूर्यदेव न केवल निर्भीक बल्कि आदर्शवादी भी थे। उन दिनों उनकी नियुक्ति बंगाल के किसी स्कूल में थी। स्कूल में वार्षिक परीक्षा चल रही थी। जिस परीक्षा भवन में उन्हें नियुक्त किया गया था, उसी भवन में उस स्कूल के प्रधानाचार्य का पुत्र भी परीक्षा दे रहा था।
यह संयोग ही था उन्होंने प्रधानाचार्य के पुत्र को नकल करते हुए पकड़ लिया तथा परीक्षा देने से वंचित कर दिया।
परीक्षाफल निकला तो वह लड़का अनुत्तीर्ण हो गया। दूसरे दिन जब सूर्यसेन स्कूल में पहुंचे तो प्रधानाचार्य ने उन्हें अपने कक्ष में बुलाया। वह जानकर अन्य सभी शिक्षक कानाफूसी करने लगे कि अब सूर्यसेन का पत्ता साफ हुआ समझो।
इधर जब सूर्यसेन प्रधानाचार्य के कक्ष में पहुंचे तो उन्होंने आशा के विपरीत उनका न केवल सम्मान किया बल्कि स्नेहवश बोलेष् ‘मुझे गर्व है कि मेरे इस स्कूल में आप जैसा कर्तव्यनिष्ठ व आदर्शवादी शिक्षक भी है, जिसने मेरे पुत्र को भी दंडित करने में कोताही नहीं बरती। नकल करते पकड़े जाने के बावजूद यदि आप उसे उत्तीर्ण कर देते तो मैं आपको अवष्य ही नौकरी से बर्खास्त कर देता।’
‘यदि आप मुझे अपने पुत्र को उत्तीर्ण करने के लिए विवश करते तो मैं स्वयं ही इस्तीफा दे देता जो इस समय मेरी जेब में पड़ा है।’
मास्टर सूर्यसेन का जवाब सुनकर प्रधानाचार्य बहुत खुश हुए और उनकी दृष्टि में सूर्यसेन की इज्जत दोगुनी हो गई।