जन्माष्टमी पर लघु निबंध (Hindi Essay on Janmashtami)
जन्माष्टमी का त्योहार हमारे देश के एक छोर से दूसरे छोर तक बड़े उल्लास और आनन्द के साथ मनाया जाता है। यह त्योहार होली, दीवाली, दशहरा आदि की तरह विशुद्ध रूप से धार्मिक त्योहार है। यह पवित्रता, स्वच्छता और विशुद्धता का प्रतीक है। इस त्योहार से श्रद्धा और विश्वास के साथ साथ सात्त्विक भावों का उदय होता है। मुख्य रूप से यह त्योहार आत्म विश्वास और आत्म चेतना का प्रेरक और संवाहक है।
जन्माष्टमी का त्योहार भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की रात्रि को मनाया जाता है। यों तो इस त्योहार का आयोजन इसकी प्रमुख तिथि से कई दिन पूर्व आरम्भ हो जाता है। कुष्ण के बाल स्वरूप की आराधना उपासना के अन्तर्गत उनके ईश्वरीय स्वरूप का चिंतन-मनन किया जाता है। बालक श्रीकृष्ण की विभिन्न बाल लीलाओं को आधार बनाकर नाटक, परिसंवाद या नृत्य कलाएं आयोजित की जाती हैं। इन सबसे अधिक रोचक और आकर्षक प्रदर्शनियां और झांकियां हुआ करती हैं।
जन्माष्टमी मनाने के विषय में एक पौराणिक कथा है। श्रीमद्भगावद् पुराण के अनुसार द्वापर युग में मथुरा का राजा कंस बड़ा ही अत्याचारी और नृषंस था। वह अब अपनी बहन देवकी को विवाह के बाद उसकी ससुराल पहुंचाने के लिए रथ पर ले जा रहा था, तब उस समय यह आकाशवाणी हुई कि जिस बहन को तुम इतने लाड़ प्यार के साथ विदा कर रहे हो, उसी की आठवीं संतान तुम्हारी मृत्यु का कारण होगी। कंस इस आकाशवाणी को सुनकर घबरा गया। उसने हड़बड़ाकर अपनी बहन देवकी को जान से मारने के लिए तलवार खींच ली थी। तब कंस को वसुदेव ने धैर्य देते हुए समझाया। जब इसके ही पुत्र से आपकी मृत्यु होगी, तब इसे आप बन्दी बना लीजिए और इसका जो भी पुत्र होगा यह आपको एक एक करके दे दिया करेगी। आप जो चाहे वह कीजिएगा।
कंस ने वासुदेव की बातें मान लीं और देवकी तथा वसुदेव को जेल में डाल दिया। इन पर कड़ी निगरानी रखने का सख्त आदेश भी दिया। कहा जाता है कि कसं ने देवकी के एक-एक करके सात पुत्रों को पटक पटक कर मार डाला। आठवें पुत्र कृष्ण की जगह पर वसुदेव ने अपने मित्र की पुत्री नन्द की पुत्री को आकाशवाणी के अनुसार कंस को दे दिया। कंस ने पुत्र या पुत्री का विचार न करके क्रोध और भय के फलस्वरूप उस कन्या को जैसे ही पटकने के लिए प्रयत्न किया, वैसे ही वह कन्या उसके हाथ से छूटकर यह आकाशवाणी करती हुई निकल गयी- ‘हे कंस जिसके भय से तुमने मुझे मारना चाहा है, वह जन्म ले चुका है और गोकुल पहुँच चुका है।’ कंस इस आकाशवाणी को सुनकर सहम गया। किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर वह क्रोध से विक्षिप्त हो उठा। उसने आदेश दिया कि आज जो भी बच्च पैदा हुए हैं, उन्हें मार डालो। ऐसा ही किया गया। उसने गोकुल में भी अपने प्रतिनिधियों पूतना जैसी मायावनी को भेजकर कृष्ण को मार डालने की कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन कृष्ण तो परब्रहम परेमश्वर के अवतार थै। इसलिए उनका कुछ भी बाल बांका न हो सका। इसके विपरित श्रीकृष्ण ने न केवल कंस के प्रतिनिधियों को मार डाला। अपितु कंस की ही जीवन लीला को समाप्त कर दिया।
भगवान श्रीकृष्ण की इस परम लीला की झांकी और प्रदर्शनी जन्माष्टमी के दिन प्रायः प्रत्येक श्रद्धालुओं के द्वारा इस जन्माष्टमी के पावन समय पर प्रस्तुत की जाती है। भगवान श्रीकृष्ण के इस चरित्र और जीवन झाँकी की रूप रेखा के द्वारा हमें उनके स्वरूप के विविध दर्शन और ज्ञान प्राप्त होते हैं। इनमें मुख्य रूप से श्रीकृष्ण का योगी, गृहस्थ, कूटनीतिज्ञ, कलाकार, तपस्वी, महान पुरूषार्थी, दार्शनिक, प्रशासक, मनस्वी आदि स्वरूप हैं। इसके साथ ही साथ श्रीकृष्ण के लोक-रंजक, लोक-संस्थापक और लोक प्रतिनिधित्व स्वरूप का भी हमें ज्ञान और दर्शन जन्माष्टमी के त्योहार के मनाने से सहज ही प्राप्त हो जाता है। भगवान धर्म संस्थापनार्थ पापियों के विघ्वंसक और साधुओं के रक्षक हैं। यह भी प्रबोध हमें मन और आत्मा से बार बार हो जाता है।
जन्माष्टमी के त्योहार को मनाने का ढ़ंग बड़ा ही सहज और रोचक है। इस त्योहार को मनाने के लिए सभी श्रद्धालु सवेरे सवेरे ही अपने घरों और आवासों की सफाई करके उसे धार्मिक चिन्हों के द्वारा सजाते हैं। विभिन्न प्रकार के धार्मिक कृत्यों को करते हैं और व्रत रखते हुए श्रीकृष्ण लीला गान और श्रीकृष्ण कीर्तन करते रहते हैं। बड़े बड़े नगरों में तो इस त्योहार को बड़े पैमाने पर सम्पन्न और आयोजित करने के लिए कई दिन पहले से ही तैयारियां आरम्भ हो जाती हैं। नगर की गलियाँ-गलियारे विविध प्रकार की साज सज्जा से झूम उठते हैं। मिठाइयों की दुकानें, कपड़ों की दुकानें, खिलौनों की दुकानें, मन्दिर और अन्य धार्मिक संस्थानों सहित कई प्रकार के सामाजिक प्रतिष्ठान भी सज धजकर चमक उठते हैं। सबसे अधिक बच्चों में होता है। अन्य भक्तगण तो इस त्योहार को सबसे बड़ा आनन्ददायक और उत्साहवर्द्धक के रूप में समझकर अपने तनम न को न्योछावर करने के लिए प्रस्तुत किया करते हैं।
सवेरे से ही श्रीकृष्ण का मन ही मन स्मरण और समर्पण भाव से नाम जपते हुए जन्माष्टमी के त्योहार को कुछ पूजा पाठ करके दान-पुण्योपरान्त व्रत के रूप में धारण करते हैं। भगवान की मूर्ति या चित्र पर अर्ध्य, अंगरू, दीप, फल आदि को चढ़ा कर दिन भर व्रत को रखते हुए रात को भी धारण किये रहते हैं। कुछ लोग तो अखंड भाव से कम से कम जलपान करते हुए व्रत रखते हैं। प्रायः सभी भक्तगण दिन भर प्रसाद या स्वच्छ फल या पेय पदार्थ का सेवन करके अर्द्धरात्रि के समय चन्द्रदर्शनोपरान्त ठीक मध्य रात्रि 12 बजे श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का आनन्द लेते हुए कथा श्रवण करके प्रसाद लेते हैं। इसके बाद व्रत को समाप्त करते हैं। इसके बाद फिर श्रीकृष्ण का जप जाप करके ध्यान करते हुए निद्रा का आनन्द लेते हैं। कुछ लोग रात्रि भर जागरण किया करते हैं।
जन्माष्टमी का त्योहार आर्थिक और कृषि की दृष्टि से अत्यधिक महत्व का है। इस दृष्टि से गोपालन और गोरक्षा की भावना पुष्ट होती है। इससे हमारे मन और अंतःकरण में श्रीकृष्ण के समस्त जीवन की झाँकी झलकने लगती हैं। हम आध्यात्मिक और धार्मिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से सबल और पुष्ट होने के लिए नए नए संकल्पों को दुहराने लगते हैं। इस त्योहार को मनाने से हमें नयी स्फूर्ति, सम्प्रेरणा, नया उत्साह और नवीन आशाओंके प्रति जागृति होती है। अतएव हमें जन्माष्टमी के इस पावन त्योहार को बड़ी पवित्रता के साथ मनाना चाहिए।