जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान पर लघु निबंध
मानव एक संवेदनशील प्राणी है। वह सदैव अपनी इच्छापूर्ति में लगा रहता है, मगर इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होतीं। एक एक करके इच्छाएँ जन्म लेती ही रहती हैं। इस प्रकार इच्छाओं, आकांक्षाओं का एक अनवरत क्रम चलता रहता है। यही आकांक्षाएँ ही दुखों का कारण हैं। महात्मा बुद्ध ने कहा था- इच्छाएँ दुखों का मूल कारण हैं अर्थात् सच्चा सुख पाने के लिए आवश्यक है- इच्छाओं का दमन किया जाए। इसी कारण भारतीय संस्कृति व दर्शन के अनुसार सन्तोष को अपनाने पर बल दिया गया है। सन्तोष धन को पाकर इच्छाओं से छुटकारा सम्भव है।
अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सन्तोष क्या है? महोपनिषद् के अनुसार ‘अप्राप्य वस्तु के लिए चिंता न करना, प्राप्त वस्तु के लिए सम रहना सन्तोष है। इससे स्पष्ट है कि सन्तोष मनुष्य की वह दशा है, जिसमें वह अपनी वर्तमान अवस्था से तृप्त रहता है और उससे अधिक की कामना नहीं करता। हाँ, यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि वर्तमान अवस्था उचित साधन, पवित्र कर्म, परोपकार से प्रभावित हो अन्यथा व्यक्ति कदापि अपने विकास के लिए प्रयत्न ही नहीं करेगा। मनुष्य प्रयत्न तो अवश्य करे, किन्तु परिणाम मनोनुकूल न मिलने पर भी उद्विग्न न हों, अपितु प्रयत्नरत ही रहें। जैसा की यूनानी दार्शनिक ने कहा है- जो घटित होता है, उससे मैं सन्तुष्ट हूँ क्योंकि मैं जानता हूं कि परमात्मा का चयन मेरे चयन से अधिक श्रेष्ठ है।
सन्तोष जीवन में सुख शांति का मूलमंत्र है। सन्तोष से मानव मन में कुण्ठा, हीनभावना, ईर्ष्या द्वेष, घृणा अदि विकारात्मक दानव अपना घर नहीं कर सकते। सन्तोष वह जड़ी बूटी है जो अशांत मस्तिष्क को स्वस्थ बनाता है। मानव परिस्थितियों की दासता त्यागकर उन पर स्वामित्व स्थापित कर लेता है। विद्वान कालयिन के मतानुसार ‘अपने पारिश्रमिक के दावों को शून्य कर दो, तब संसार तुम्हारे चरणों में होगा।’ कबीर ने भी कहा है-
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा वेपरवाह।
जिसको कुछ न चाहिए, सोई सहंसाह।।
सन्तोषी व्यक्ति तृष्णाओं पर विजय प्राप्त करता है जिससे सहयोग, भ्रातृत्व, राष्ट्र प्रेम आदि सद्गुण विकसित होते हैं। इसी भावना के वषीभूत होकर गुरू नानक ने कहा था-
फिरत करो अते दण्ड के छक्कों।
इसका अभिप्राय है कि कर्म करो और बांटकर खाओ। सन्तोष रूपी धन प्राप्त हो जाने से मनुष्य की आँखों में एक अनोखी चमक आ जाती है, अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती है और अंग अंग कर्तव्य पालन में लगा रहता है।
इसके विपरीत असन्तोष हर प्रकार के दुख, वैमनस्य और क्लेश का कारण है। असन्तोषी, इच्छाओं के एक ऐसे कीचड़ में धंस जाता है, जहाँ से निकलना स्वयं उसके लिए ही असंभव सा हो जाता है। असन्तोषी मनुष्य को अतृप्त भावनाएँ लकड़ी में लगी दीमक की भाँति भीतर ही भीतर खोखला करती जाती है। ऐसे व्यक्ति सदैव निन्यानवे के फेर में पड़े रहते हैं। असन्तोष न केवल बुराइयों का जनक ही है अपितु शारीरिक और मानसिक कष्ट की खान भी हैं। इसीलिए भर्तृहरि ने कहा था-
अंगं गलितं पलित मुण्डम,
दशन विहीनं जातम् तुण्डम्।
कायां प्रगटति करभ विलासम्,
तदपि न मुंचति आशा पिण्डम्।।
अर्थात् अंग गल गए, सिर सफेद हो गया, मुख दाँत विहीन हो गया, शरीर हाथी की सूंड की भांति झुलने लगा है, फिर भी मनुष्य आशा का पिंड नहीं छोड़ता। यह एक असन्तोषी व्यक्ति की दशा है। ऐसे व्यक्ति सदैव अंतर्द्वन्द्व से ग्रस्त रहता है।
वर्तमान युग में सन्तोष की बहुत अधिक आवश्यकता है। आज सर्वत्र अराजकता, अतृप्ति और वैमनस्य का बोलबाला है। ऐसे वातावरण में सन्तोष रूपी वास्तविक धन ही सच्ची शांति ला सकता है। सन्तोष मानव को समझाता है-
रूखी सूखी खाय के, ठण्डा पानी पीव।
देख परायी चूपड़ी, मत ललचाए जीव।।
आधुनिक काल में व्यक्ति पैसे की एक ऐसी अन्धी दौड़ लगा रहा है कि साधारण व्यक्ति लखपति बनना चाहता है। लखपति करोड़पति बनने का उत्सुक है और करोड़पति अरबपति बनने का स्वप्न संजोए है। ऐसे में यदि संतोष का दामन थाम लिया जाए, तो सब समस्याओं का समाधान हो सकता है। कबीर ने कहा है-
साँई इतना दीजिए, जा में कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
अंत में कहा जा सकता है कि सन्तोष धन सब प्रकार के धन से श्रेष्ठ है। इस धन के समक्ष गौ रूपी धन, घोड़ों रूपी धन, हाथी रूप धन अथवा हीरे जवाहरात सब नगण्य हैं। ये धूल के समान हैं। इसलिए रहीम कवि ने स्पष्टत कहा है-
गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।।