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भारत को आजादी गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह से मिली या भगत सिंह की कुर्बानी से?

तलवारों की धारों पर जग की आजादी पलती है, इतिहास उधर चल देता है जिस और जवानी चलती है

2 अक्टूबर को भारत में हर बार की तरह गांधी जयंती मनाई जाएगी। लेकिन इस बार गांधी जयंती पर एक बहस बहुत जोरों पर है – क्या भारत को आजादी महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह से मिली या भगत सिंह जैसे शहीदों की कुर्बानी से? जैसा कि किसी भी बहस में होता है इस बहस के पक्ष-विपक्ष में भी लोगों के अपने-अपने तर्क हैं। जहां युवा पीढ़ी शहीदों जैसे भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, खुदीराम बोस, सुभाष चन्द्र बोस, राम प्रसाद बिस्मिल आदि द्वारा छेड़े गए हिंसक संघर्ष को भारत की आजादी का श्रेय देना चाहती है वहीँ कुछ लोगों का मत है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांगेस के लम्बे विरोध का परिणामस्वरुप अंग्रेजों को भारत से अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर जाना पड़ा।

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gandhi bhagat singh India independenceथॉमस जैफर्सन ने कहा था – “स्वतंत्रता के पेड़ को समय समय पर तानाशाहों के खून से सींचा जाना जरूरी है” . मतलब यह कि अगर कोई कौम आजाद रहना चाहती है तो उसे आजादी के बदले में अपने खून की कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत की स्वाधीनता की लड़ाई में भी यही बात उभर कर सामने आती है। जब तक अंग्रेजों का विरोध केवल धरने-प्रदर्शनों और सत्याग्रहों तक सीमित रहा, ऐसा कभी नहीं लगा कि अंग्रेज भारत को स्वतंत्रता देने को लेकर तैयार थे। लेकिन 1920 के बाद बढ़ते हिंसक विरोध और सशत्र हमलों ने उन्हें अपना रुख बदलने पर मजबूर कर दिया।

सच तो यह है कि 1947 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री एटली से जब पुछा गया कि भारत को मिली आजादी में गांधी जी और उनके भारत छोड़ो आंदोलन का कितना योगदान था तो एटली ने हलके से मुस्कुरा कर कहा – “नगण्य”। सच्चाई तो यह है जर्मनी के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध में उलझने के दौरान वित्तीय खस्ता हालत, सामरिक कमजोरी, आजाद हिन्द फ़ौज का आक्रमण और सबसे बढ़कर अमेरिका का सभी उपनिवेशों को मुक्ति देने का दबाव – इन सभी कारणों से अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाने का फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा। नेवी में हुए विद्रोह को भी अंग्रेजों के भारत से पलायन का एक मुख्य कारण माना जाता है।

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आखिर अमेरिका को आजादी जार्ज वाशिंगटन की सेना के विरोध ने दिलाई या अमेरिका किसी टेबल पर हुई वार्ता से आजाद हुआ, रूस में ज़ार के निरंकुश शासन से मुक्ति बोल्शेविकों की क्रांति और रक्तपात मिली, हो ची मिन्ह ने फ्रांसीसियों को गुलदस्ते दे कर तो नहीं भगाया था? यहाँ तक कि बांग्लादेश को आजादी हजारों लोगों की शहादत के बाद ही मिल पाई थी.

सच्चाई तो यह है कि सन 1930 तक कांगेस तो भारत को मात्र डोमिनियन स्टेटस के मिल जाने की ही मांग से संतुष्ट थी वहीँ HRA आदि (भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों द्वारा संचालित गरम विचार धारा वाले समूहों ) द्वारा पूर्ण स्वाधीनता की मांग हो रही थी. क्रांतिकारियों की बढ़ती लोकप्रियता से घबरा कर मात्र छह महीने में कांग्रेस को अपनी मांग बदल कर सिर्फ डोमिनियन से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करनी पड़ी। अगर भारत वासी गांधी जी के अहिंसा और सत्याग्रह के भरोसे बैठे होते तो आज भी भारत में अंग्रेजों के खिलाफ अनशन चल रहे होते और आज भी भारत में ब्रिटिश शासन ही होता।

यह कहना कि गांधी जी के अहिंसावादी आन्दोलनों और स्वदेशी आन्दोलनों के चलते अंग्रेजों को भारत में राज करना बड़ा खर्चीला और घटे का सौदा लगने लगा, सिवाय एक ग़लतफ़हमी के और कुछ नहीं है।

महात्मा गांधी की निष्ठां और स्वाधीनता प्राप्ति के लिए उनके प्रयासों की ईमानदारी पर सवाल उठाना इस लेख का उद्देश्य नहीं है किन्तु सच्चाई यही है कि भारत को मिली आजादी की इबारत हमारे शहीदों के खून से लिखी गई थी। आखिर ऐसे ही तो नहीं कहा गया है कि “तलवारों की धारों पर जग की आजादी पलती है, इतिहास उधर चल देता है जिस और जवानी चलती है।”

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