निरक्षरताः एक सामाजिक अभिशाप (illiteracy in India)
मुनष्य को किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व सोच समझ लेना पड़ता है। उसे औचित्य तथा अनौचित्य का विचार करना पड़ता है। वह किसी विशेष कार्य को यूं ही प्राम्भ नहीं कर देता। जबकि मूर्ख को किसी भी बात से कोई सरोकार नहीं होता। उसका चाहे मान हो या अपमान हो, उसे तनिक भी चिन्ता नहीं रहती। मूर्ख का अपने में कोई लक्ष्य नहीं होता। लक्ष्य निर्धारण में वह अपने को सर्वथा शून्य पाता है। उसे जिस किसी काम में डाल दिया जाए बस, उसे करता जाएगा। उसके परिणाम से वह नितांत अनिभिझ होता है। श्रीभृतंहरि के अनुसार-
‘साहित्य संगीत कला विहीनः। साक्षात् पशुः पुर्च्छावषहीनः।
तृणं न खादन्ति जीवनमानः, तद् भारधेय परम पशूनाम्।।’
अर्थात् जो मनुष्य साहित्य, संगीत कला से हीन है, वह तुच्छ तथा सींग रहित पशु के सदृश है। बुद्धिमान वही है, जो साहित्य, संगीत और कला का व्यसनी हो अन्यथा वह इस धरती पर भार के समान है। अपनी उदरपूर्ति के साधन प्राप्त करने में ही मूर्ख अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझता है। किसी भी समाज या देश में ऐसे लोगों से क्या लाभ हो सकता है और फिर ये अधिक संख्या में हों, तो वे समाज या देश के लिए कहाँ तक हितकर सिद्ध हो सकते हैं- यह एक विचारणीय प्रश्न है। ऐसे लोगों पर यदि परिवार का भार है, तो क्या वे परिवार को सही दिशा दे सकेंगे। उसका मार्गदर्शन कर सकेंगे। वे माता पिता के रूप में आकर अपनी सन्तान को क्या शिक्षा प्रदान कर सकेंगे। और फिर… मनुष्य और पशु में क्या अन्तर रह गया। ज्ञान ही एक ऐसा विशेष एवं अनुपम तत्व है जो उसे पशुता से पृथक करता है। अन्यथा यह पशु कोटि में गणना करने योग्य है। मनुष्य अपने स्वार्थ में अति पटु होता है तो पशु-पक्षी भी हानि या अपने लाभ सम्पक् प्रकार से जानते हैं सन्तति प्रेम मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों में समान रूप से पाया जाता है। गाय-भैंस भी अपने बच्चे को प्यार दुलार करती हैं- संगीत में ऐसी मनमोहक शक्ति है कि उसकी और सभी समानरूपेण आकृष्ट होते हैं। एक बधिक के वश में मृग भी सुगमता से नहीं आ जाता और संगीत सुनकर वह इतना आनन्द विभोर हो जाता है कि वह आँखें मूँद लेता है। वधिक बाण मारकर उसकी जान ले लेता है। कलाकार तथा गुणवान मनुष्य का सम्मान सर्वत्र होता है। मूर्ख व्यक्ति का कोई समादर नहीं करता है। सारांश यह है कि अनेक गुण तथा व्यवहार ऐसे हैं जो मनुष्यों की तरह से ही पशुओं में पाए जाते हैं। पशुओं और पक्षियों में भी एकता पाई जाती है। उदाहरणार्थ एक बन्दर कहीं फँस जाये तो उसे बचाने के लिए अनेक वानर वहाँ एकत्रित हो जाते हैं। केवल शिक्षा या ज्ञान ही एक ऐसा सूक्ष्म तत्व है जो मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ प्रमाणित करता है।
उपर्युक्त तथ्यों पर दृष्टि डालने से यह तथ्य सामने आता है कि साक्षर होना मनुष्य के लिए बहुत ही आवश्यक है। शासन की ओर से सभी के लिए समान रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। भारत में शिक्षा की समुचित व्यवस्था रही है। हमारा देश भारत सैकड़ों वर्षों तक दासता की जंजीरों मे जकड़ा रहा। इससे हमारी विचारधारा तथा प्रयत्न निष्क्रिय हो गए। ब्रिटिश शासनकाल में शिक्षा व्यवस्था की जो दशा हुई, उससे भली प्रकार सभी सुपरिचित हैं। उन लोगों का तो यही विचार था कि भारतीय संस्कृति और साहित्य का मूलोच्छेदन ही कर दिया जाए, और इस विचार को उन्होंने कार्यरूप में बदलने का पूरा प्रयास किया।
यह स्पष्ट है कि निरक्षरता के उन्मूलन के बाद ही हमारा देश सच्चे अर्थ में समस्त क्षेत्रों में प्रगति कर सकता है। निरक्षरता समाज के लिए तथा देश के लिए अभिशाप है- कलंक है। खेद का विषय यह है कि स्वतन्त्र हुए 44 वर्ष व्यतीत हो गए किन्तु अभी निरक्षरता समाप्त नहीं हो सकी है। आज की शिक्षा व्यवस्था में कुछ सुधार की भी आश्वयकता है- शिक्षा सस्ते शुल्क पर उपलब्ध कराई जाए तो सभी को लाभ मिलेगा। शिक्षा पर होने वाला व्यय कुछ महंगा पड़ता है। इसके अतिरिक्त कुछ लोगों का ध्यान अब भी शिक्षा की ओर अपेक्षाकृत कम है।
हमारे राष्ट्र कर कल्याण तभी सम्भव है जबकि हमारे देशवासी साक्षरता की दिशा में ठोस कदम उठाएँ और निरक्षरता के निवारणार्थ यथासम्भव सच्चे अर्थ में प्रयत्न करें। वह दिन वास्तव में कितना सुखद होगा जबकि निरक्षरता पूर्णतः समाप्त हो जाएगी अथवा बहुत कम प्रतिशत में ही रह जायेगी।
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