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गांधी ने सरदार पटेल के बजाय क्यों चुना नेहरू को भारत का पहला प्रधानमंत्री ?

सरदार वल्लभ भाई पटेल (Sardar Patel) की कर्मठ जीवन शैली, एक कामयाब प्रशासक और दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता की छवि के कारण कांग्रेस में एक आम कार्यकर्त्ता से लेकर वरिष्ठ नेताओं तक सभी सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत का प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। फिर क्या हुआ कि लौह पुरुष सरदार पटेल (Sardar Patel) भारत के प्रथम प्रधान मंत्री नहीं बन पाये? इसका उत्तर जानने के लिए हमें सन 1946 में जाना होगा।

gandhi-patel1946 के आते आते यह लभग सभी को विश्वास हो चला था कि भारत को आजादी मिलना लगभग तय है। द्वितीय विश्वयुद्ध ख़त्म हो चूका था और अंग्रेज शासक भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण के बारे में विचार-विमर्श करना शुरू कर चुके थे। कांग्रेस के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी क्यूंकि 1946 के चुनावों में कांग्रेस को ही सबसे अधिक सीटें मिली थीं। अचानक ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद की और सभी की निगाहें हो चली थी क्यूंकि यह लगभग तय था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही भारत का भावी प्रधानमंत्री होगा।

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उस समय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। भारत छोडो आंदोलन के कारण कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता जेल में थे और पिछले 6 साल से चुनाव ना हो पाने के कारन मौलाना आज़ाद ही कांग्रेस के अध्यक्ष बने हुए थे। आज़ाद भी सन 1946 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनावों में भाग लेने के इच्छुक थे और उनकी भी प्रधान मंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी। किन्तु महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) ने उन्हें स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष पद का फिर से उम्मीदवार नहीं बनाया जायेगा।

गांधी के आदेश के सामने आज़ाद की एक न चली और उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष बनने का इरादा त्याग दिया। यही नहीं, गांधी ने उस वक़्त बड़े साफ तौर अपना समर्थन नेहरू (Nehru) के पक्ष में जाहिर कर दिया था। उनकी नज़र में उस समय कांग्रेस की बागडोर सँभालने के लिए नेहरू से बढ़कर कोई उम्मीदवार था ही नहीं।

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कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की अंतिम तिथि 29 अप्रैल 1946 थी या यूँ कहिये कि भारत का भावी प्रधान मंत्री बनने की उम्मीदवारी की आखिरी तिथि 29 अप्रैल 1946 थी। यह नामांकन 15 राज्यों की कांग्रेस की क्षेत्रीय इकाइयों द्वारा किया जाना था।

हैरत की बात यह है कि गांधी (Mahatma Gandhi) द्वारा इतने खुले तौर पर नेहरू (Nehru) का नाम आगे बढ़ाये जाने के बावजूद भी एक भी राज्य की कांग्रेस समिति ने नेहरू के नाम का समर्थन नहीं किया। बल्कि 15 में से 12 राज्यों से सरदार पटेल (Sardar Patel) का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया गया। बाकी 3 राज्यों ने किसी का भी नाम आगे नहीं आया। स्पष्ट है कि सरदार पटेल के पास निर्विवाद समर्थन हासिल था जो उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए पर्याप्त था।

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इसे गांधी ने एक चुनौती के तौर पर लिया। उन्होंने जे बी कृपलानी को इस बात के लिए दबाव डाला कि वह कांग्रेस कार्य समिति के कुछ सदस्यों को नेहरू (Nehru) के नाम का प्रस्ताव करने के लिए राजी करें। आश्चर्य की बात तो यह है कि गांधी को अच्छी तरह से मालूम था कि कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के पास यह अधिकार था ही नहीं कि वह नेहरू के नाम का प्रस्ताव रखते क्यूंकि यह अधिकार कांग्रेस के संविधान के अनुसार केवल राज्यों की इकाइयों के पास ही था।

gandhi nehruखैर, गांधी जी इच्छा के अनुसार कृपलानी जी ने कुछ कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों को नेहरू के नाम का समर्थन करने के लिए मना लिया। ऐसा नहीं है कि गांधी जी को यह नहीं पता था कि यह गलत हो रहा था बल्कि इसमें गांधी जी की पूर्ण सहमति थी। गांधी जी अच्छी तरह से जानते थे कि नेहरू का नाम जिस तरह से आगे बढ़ाया जा रहा था वह गलत और कांग्रेस के संविधान के अनुसार अवैधानिक था।

आश्चर्य की बात तो यह है कि नेहरू अपने आपको कांग्रेस का स्वाभाविक अध्यक्ष मान चल कर रहे थे। जब उन्हें यह पता चला कि एक भी राज्य इकाई से उनके नाम का समर्थन नहीं आया है तो वह पूरी तरह से भौंचक्के रह गए।

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गांधी जी ने जब उन्हें यह बताया कि उनके नाम का प्रस्ताव केवल कांग्रेस के कुछ कार्य समिति के सदस्यों द्वारा ही किया गया है तो वह बिफर उठे। नेहरू जिद पर अड़ गए कि वह किसी अन्य के मातहत कांग्रेस में या आगे चल कर आज़ाद भारत की कोई प्रशासनिक जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं थे।

गांधी जी समझ गए कि ऐसी स्थिति में नेहरू को मनाना आसान नहीं होगा और काफी हद तक गांधी खुद भी नेहरू को ही भारत का प्रधानमंत्री बनते हुए देखना चाहते थे। गांधी जी ने सरदार पटेल से मुलाक़ात की और नेहरू के समर्थन में कांग्रेस अध्यक्ष पद की दौड़ से हट जाने के लिए निवेदन किया।

सरदार पटेल इस निवेदन के पीछे की कूटनीति को समझ तो रहे थे किन्तु गांधी जी के प्रति गहरे आदर भाव और ब्रिटिश शासकों से आज़ादी को लेकर चल रहे आंदोलन के निर्णायक समय में कांग्रेस की एकता बनाये रखने के लिए उन्होंने पीछे हटना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार नेहरू के भारत के प्रथम प्रधान मंत्री बनने का रास्ता प्रशस्त हुआ।

लेकिन प्रश्न यह उठता हैं कि आखिर क्यों गांधी ने सरदार पटेल की जबरदस्त लोकप्रियता के बावजूद नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुना? आखिर नेहरू में ऐसा क्या था कि उन्होंने तमाम विरोध के स्वर उठने के बाद भी नेहरू के नाम का ही समर्थन किया?

यहाँ तक कि जब राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू के लिए सरदार पटेल के नामांकन वापस लिए जाने की खबर सुनी तो उनके मुंह से निकला कि एक बार फिर गांधी (Mahatma Gandhi) ने अपने चहेते चमकदार चेहरे (नेहरू) के लिए अपने विश्वासपात्र सैनिक (सरदार पटेल) की कुर्बानी दे दी।

लेकिन क्या यह सही है कि मात्र नेहरू (Nehru) के चमकदार व्यक्तित्व के लिए ही गांधी (Mahatma Gandhi) ने सरदार पटेल के साथ अन्याय किया या असल कारण कुछ और ही था?

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इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं है किन्तु नेहरू और पटेल के प्रति गांधी के रुख का अध्ययन करने पर इस भेद का खुलासा हो सकता है।

इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि सरदार पटेल (Sardar Patel) के मुकाबले नेहरू (Nehru) गांधी जी की हमेशा से पसंद थे और उन्होंने इससे पहले भी 2 बार 1929 और 1937 में सरदार पटेल के ऊपर नेहरू के नाम का कांग्रेस पद के लिए समर्थन किया था। गांधी जी को नेहरू को मॉडर्न विचारों का होना शुरू से ही पसंद था।

नेहरू के मुकाबले गांधी जी सरदार पटेल को कट्टरपंथी मानते थे। गांधी जी को लगता था आगे चल कर सरदार पटेल के कट्टरपंथी दृष्टिकोण के मुकाबले नेहरू की नरम और लचीली नीति भारत के लिए ज्यादा सफल साबित हो सकेगी। पर छुपा हुआ सत्य यह भी था कि गांधी जी की मर्जी के खिलाफ एक बार सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद से गांधी जी कांग्रेस पार्टी पर अपनी पकड़ को लेकर आश्वस्त नहीं थे।

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उन्हें लगता था कि अगर सरदार पटेल ने अपना नाम वापस नहीं लिया तो नेहरू की हार हो जाएगी जिसे गांधी जी अपनी हार के रूप में देखते थे। साथ ही उन्हें यह भी पता था कि सरदार पटेल उनके कहने पर अपना समर्थन वापस ले सकते हैं किन्तु नेहरू कदापि ऐसा नहीं करेंगे।

सच तो यह है कि नेहरू (Nehru) ने अपनी इस राय से उन्हें साफ साफ वाकिफ भी करवा दिया था कि वह कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर कोई समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे और वह किसी भी दूसरे व्यक्ति के नीचे कांग्रेस या सरकार में कोई पद नहीं स्वीकार करेंगे। नेहरू के इसी अड़ियल रवैये और नेहरू के प्रति अपने पक्षपाती स्नेह के चलते गांधी जी ने सरदार पटेल पर अपना नामांकन वापस लेने का दबाव बनाया।

कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि नेहरू ने उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनाये जाने की स्थिति में कांग्रेस पार्टी छोड़ कर अलग पार्टी बनाने की धमकी भी दी थी। इस तरह दबाव में आकर गांधी जी ने नेहरू के पक्ष में अपनी वीटो पावर का इस्तेमाल किया.

उन्हें लगा कि कांग्रेस के उस समय विभाजन से अंग्रेज़ों को भारत की आज़ादी को टालने का सुनहरा अवसर हाथ लग जाएगा। ढलती उम्र के कारण गांधी जी नेहरू के ऊपर बहुत हद तक निर्भर हो चुके थे।

कुछ अन्य लोगों के मतानुसार गांधी जी भले ही भारतीयता, स्वदेशी आदि को आधार बनाकर अपना आंदोलन चला रहे थे किन्तु स्वयं ब्रिटेन में शिक्षित होने के कारण उन्हें सम्पूर्ण रूप से देसी पटेल के ऊपर इंग्लैण्ड में ही शिक्षित नेहरू ज्यादा माडर्न और प्रगतिशील नजर आते थे।

साथ ही नेहरू (Nehru) को पद की दौड़ से हट जाने के लिए कहने के बजाय सरदार पटेल को ऐसा करने के लिए कहना ज्यादा सुरक्षित लगा क्यूंकि वह समस्त राष्ट्र के सामने अपने ही चहेते नेहरू द्वारा लज्जित होते हुए नहीं दिखना चाहते थे। यहाँ तक कि उन्होंने एक बार कहा भी कि पद और सत्ता की लालसा में नेहरू अंधे हो गए हैं।

इस तरह हम सारांश में कह सकते हैं कि गांधी जी द्वारा सरदार पटेल के बजाय नेहरू को चुनने के पीछे दो मुख्य कारण थे :

1. गांधी जी को लगता था कि विदेश में शिक्षित नेहरू, खांटी देसी और कट्टर विचारों वाले सरदार पटेल के मुकाबले प्रधान मंत्री पद के लिए ज्यादा योग्य थे।

2. गांधी जी को लगता था कि नेहरू विद्रोह कर के कांग्रेस का विभाजन कर सकते हैं। अपनी बढ़ती उम्र के चलते गांधी जी यकीन नहीं था कि वह बची हुई कांग्रेस को पहले की तरह नेतृत्व दे पाएंगे और अंग्रेज़ों के खिलाफ चल रहे आंदोलन को जारी रख पाएंगे। साथ ही उन्हें विश्वास था कि सरदार पटेल देशहित में उनके अनुरोध को नहीं ठुकराएंगे और पद की दौड़ से अपना नाम वापस ले लेंगें।

गांधी (Mahatma Gandhi) का यह सोचना सही साबित हुआ और सरदार पटेल ने अपना नाम सहर्ष वापस ले भी लिया।

पर इतिहास साक्षी है कि गांधी जी के इस निर्णय की बहुत महँगी कीमत आगे चल कर देश को चुकानी पड़ी।

मौलाना आज़ाद ने 1959 में प्रकाशित अपनी जीवनी में लिखा था – सरदार पटेल (Sardar Patel) के नाम का समर्थन ना करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यकीन है कि मेरे बाद अगर 1946 में सरदार पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया होता तो भारत की आज़ादी के समय “कैबिनेट मिशन प्लान” को उन्होंने नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करवाया होता।

उन्होंने नेहरू (Nehru) की तरह जिन्ना को इस प्लान को फेल करना का अवसर नहीं दिया होता। मैं अपने आपको कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाउँगा कि मैंने यह गलती न करके सरदार पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता। “

इसी तरह सी. राजगोपालाचारी, जो पटेल से इसलिए नाराज थे कि उन्हें भारत का प्रथम राष्ट्रपति बनने से रोकने में सरदार पटेल की अहम भूमिका थी, ने भी लिखा था कि – “इस में कोई शक नहीं कि बेहतर होता यदि सरदार पटेल (Sardar Patel) को प्रधानमंत्री और नेहरू को विदेशमंत्री बनाया गया होता। मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं भी गलत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज्यादा प्रगतिशील और बुद्धिमान हैं।

सरदार पटेल के प्रति यह झूठा प्रचार किया गया था कि वह मुस्लिमों के प्रति कठोर थे। अफ़सोस कि यह गलत तथ्य होने के बावजूद इसका प्रचार किया जा रहा था। “

सवाल लेकिन यहाँ सरदार पटेल के लिए भी उठता है कि आखिर उनकी पहली आस्था देश के प्रति थी या कांग्रेस पर लगातार ढीली पड़ती पकड़ वाले गांधी (Mahatma Gandhi) के प्रति? क्या उन्हें अपनी दावेदारी के पक्ष में दृढ़ता से खड़े नहीं रहना चाहिए था?

बहरहाल पटेल के पक्ष में सोचने वाले विद्वान इतिहासकारों का मानना है कि अगर पटेल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बनते तो कम से कम तीन महत्वपूर्ण मौकों पर भारत के पक्ष में बेहतर हालात बने होते और भारत ने इतना नुकसान ना उठाया होता :

  1. 1947 का विभाजन
  2. कश्मीर का मुद्दा
  3. 1962 की लड़ाई के समय भारत का चीन के मुकाबले बिलकुल न ठहर पाना।

आज तक हम इन तीन समस्याओं से जूझते ही आ रहे हैं और शायद अगले 50 साल तक ऐसे ही जूझते रहें।

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