घर चौबारे की क्यारी में, हँसती है चारदीवारी में
महके फूलों को साथ लिए शाखें हैं पहरेदारी में.
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दूर पहाड़ों से उठती है धुंध की चादर, सीली है
धूप के तिनकों रुक जाओ अभी रूप की चादर गीली है.
पायल चूड़ी झुमके बिंदिया संग उसकी हस्ती सस्ती है
उस पार वहां उस बीहड़ में सांपो की बस्ती बसती है.
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धरती के गहरे ज़ख्मों को सीता बरसात का धागा है
दुःखती मिटटी से अभी अभी एक नन्हा पौधा जागा है.
साये से फैले पंखों पर अम्बर वजनी है, भारी है
एक बार गिरे और संभल गए फिर उड़ने की तैयारी है.
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~ प्रीति तिवारी
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