भारत भूमि में अनेक महापुरूषों ने जन्म लिया। स्वामी विवेकानन्द उन महापुरूषों में से एक हैं। जिन्होंने भारत माता तथा हमारी गरिमामय संस्कृति के उत्थान के लिये आजीवन कार्य किया। उनके आदर्श एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व आज भी देशवासियों को प्रेरित करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 1863 ई. में कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। इनका बचपन का नाम नरेन्द्र था। इनके घर का वातावरण अत्यन्त प्रेरणादायक था। इनके माता पिता एवं बाबा सभी विद्वान एवं प्रतिभा सम्पन्न थे।
गीत संगीत, अच्छे संस्कार एवं विभिन्न भाषाओं का ज्ञान इन्हें विरासत में ही मिल गया था। परिणामतः देश प्रेम, त्याग, तपस्या व ध्यान के संस्कार इनमें पुष्पित फलित हुये। अध्यात्म एवं दर्शन में इनकी गहरी रूचि थी। उनकी स्मरणशक्ति अत्यन्त तेज थी। वह एक प्रतिभाशाली छात्र थे।
इन्हीं सद्गुणों के कारण वह घर समाज, स्कूल व मित्र मंडली में लोकप्रिय होते गये। वह जिज्ञासु प्रवृति के थे। इसी अतृप्ति के कारण वह ब्रह्म समाज के सदस्य बने, पर उन्हें संतुष्टि नहीं मिली।
फिर एक दिन विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आये तो दोनों को एक दूसरे की प्रतिभा सम्पन्नता का ज्ञान हुआ। अपनी आन्तरिक शक्ति से रामकृष्ण ने जान लिया कि विवेकानन्द का पृथ्वी पर अवतरण एक विशेष कार्य की पूर्ति के लिये हुआ है। उन्हीं के सम्पर्क में नरेन्द्र ‘विवेकानन्द’ बने।
अनेकों सांसारिक बाधाओं को सहते हुये विवेकानन्द का आध्यात्मिक विकास होता गया। अपने संन्यासी साथियों तथा भक्तजनों के साथ मिलकर उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। मिशन द्वारा सारे संसार में अनेक सेवा केन्द्र, आश्रम, मठ, शिक्षा संस्थान, अस्पताल आदि संचालित किये जा रहे हैं। विवेकानन्द ने सम्पूर्ण देश में भ्रमण कर नवजागरण की मषाल जलायी।
सन् 1883 में अमेरिका के षिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन हुआ। विवेकानन्द ने भारत के प्रतिनिधि के रूप में वहाँ व्याख्यान दिया। उनके द्वारा की गयी धर्म की व्याख्या एवं भारत में सनातन धर्म के विषय में दिया गया उनका भाषण बहुत प्रभावशाली था। शनैः शनैः उनकी यश वह कीर्ति चारों फैलने लगी।
उन्होंने युवा पीढ़ी के लिये संदेश दिया- ‘उठो, जागो और अपने लक्ष्य से पहले मत रूको।’
Also read – स्वामी विवेकानन्द पर निबंध 10 कक्षा के लिए
लोक कल्याण एवं धर्म के प्रचार प्रसार में उन्होंने दिन रात एक कर दिया। अथक परिश्रम एवं निरंतर भ्रमण से उनका स्वास्थय खराब हो गया। 1902 को यह महापुरूष चिरनिद्रा में लीन हो गये। उनके बताये गये रास्ते पर चल कर आज भी विश्व लाभान्वित हो रहा है।