बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा। बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता ॥
विद्या ही ब्राह्मणों का बल है । राजा का बल सेना है । वैश्यों का बल धन है तथा सेवा करना शूद्रों का बल है ।
कः कालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमोः। कस्याहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः॥
कैसा समय है ? कौन मित्र है ? कैसा स्थान है ? आय-व्यय क्या है ? किसकी और मेरी क्या शक्ति है ? इसे बार-बार सोचना चाहिए ।
नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम्। नास्ति चक्षुसमं तेजो नास्ति चान्नसमं प्रियम्॥
बादल के समान कोई जल नहीं होता । अपने बल के समान कोई बल नहीं होता । आँखों के समान कोई ज्योति नहीं होती और अन्न के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं होती ।
प्रभूतं कार्यमपि वा तत्परः प्रकर्तुमिच्छति। सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते॥
छोटा हो या बड़ा, जो भी काम करना चाहें, उसे अपनी पूरी शक्ति लगाकर करें? यह गुण हमें से सीखना चाहिए
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्। वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः॥
जिस व्यक्ति के पास बुद्धि होती है, शक्ति भी उसी के पास होती है । बुद्धिहीन का तो बल भी निरर्थक है, क्योंकि बुद्धि के बल पर ही उसका प्रयोग कर सकता है अन्यथा नहीं । बुद्धि के बल पर ही एक बुद्धिमान खरगोश ने अहंकारी सिंह को वन के कुएं में गिराकर मार डाला था ।
बहूनां चैव सत्तवानां रिपुञ्जयः । वर्षान्धाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते॥
शत्रु चाहे कितना बलवान हो; यदि अनेक छोटे-छोटे व्यक्ति भी मिलकर उसका सामना करे तो उसे हरा देते हैं । छोटे-छोटे तिनकें से बना हुआ छपर मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को भी रोक देता है । वास्तव में एकता में बड़ी भारी शक्ति है ।
यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥
कोई वस्तु चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो, उसका मिलना कितना ही कठिन क्यों न हो, और वह पहुँच से बाहर क्यों न हो, कठिन तपस्या अर्थात परिश्रम से उसे भी प्राप्त किया जा सकता है । परिश्रम सबसे शक्तिशाली वस्तु है ।