तावद् भयेषु भेतव्यं यावद्भयमनागतम्। आगतं तु भयं दृष्टवा प्रहर्तव्यमशङ्कया॥
आपत्तियों और संकटों से तभी तक डरना चाहिए जब तक वे दूर हैं, परन्तु वह संकट सिर पर आ जाय तो उस पर शंकारहित होकर प्रहार करना चाहिए उन्हें दूर करने का उपाय करना चाहिए ।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥
जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।
उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्। मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥
उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है । मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता ।
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पञ्चैता पितरः स्मृताः॥
जन्म देनेवाला, उपनयन संस्कार करनेवाला, विद्या देनेवाला, अन्नदाता तथा भय से रक्षा करनेवाला, ये पांच प्रकार के पिता होते हैं ।
दारिद्रयनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्। अज्ञानतानाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी॥
दान दरिद्रता को नष्ट कर देता है । शील स्वभाव से दुःखों का नाश होता है । बुद्धि अज्ञान को नष्ट कर देती है तथा भावना से भय का नाश हो जाता है ।
विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधार्तो भयकातरः। भाण्डारी च प्रतिहारी सप्तसुप्तान् प्रबोधयेत॥
विद्यार्थी, सेवक, पथिक, भूख से दुःखी, भयभीत, भण्डारी, द्वारपाल – इन सातों को सोते हुए से जगा देना चाहिए ।
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्तवा वसेत्सुखम्॥
जिसे किसी के प्रति प्रेम होता है उसे उसी से भय भी होता है, प्रीति दुःखो का आधार है । स्नेह ही सारे दुःखो का मूल है, अतः स्नेह- बन्धनों को तोड़कर सुखपूर्वक रहना चाहिए ।