आयुः कर्म वित्तञ्च विद्या निधनमेव च। पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः॥
आयु, कर्म, धन , विद्या, निधन ये पांचों चीजें प्राणी के भाग्य में तभी लिख दी जाती हैं, जब वह गर्भ में ही होते है ।
तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः। सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता॥
मनुष्य जैसा भाग्य लेकर आता है उसकी बुद्धि भी उसी समान बन जाती है, कार्य – व्यापार भी उसी अनुरूप मिलता है । उसके सहयोगी, संगी – साथी भी उसके भाग्य के अनुरूप ही होते हैं । सारा क्रियाकलाप भाग्यनुसार ही संचालित होता है ।
रङ्कं करोति राजानं राजानं रङ्कमेव च। धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः॥
भाग्य रंक को राजा और राजा को रंक बना देता है । धनी को निर्धन तथा निर्धन को धनी बना देता है ।
अनागत विधाता च प्रत्युत्पन्नगतिस्तथा। द्वावातौ सुखमेवेते यद्भविष्यो विनश्यति॥
जो व्यक्ति भविष्य में आनेवाली विपत्ति के प्रति जागरूक रहता है और जिसकी बुद्धि तेज़ होती है, ऐसा ही व्यक्ति सुखी रहता है । इसके विपरीत भाग्य के भरोसे बैठा रहनेवाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है ।
ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्। दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात् सन्तोषमाश्रयेत्॥
मन के चाहे सारे सुख किसे मिले हैं । क्यूंकि सब कुछ भाग्य के अधीन है । अतः सन्तोष करना चाहिए ।
इस संसार में कोई भाग्यशाली व्यक्ति ही मोह-माया से छूटकर मोक्ष प्राप्त करता है। उनका कहना है —–‘धन-वैभव को प्राप्त करके ऐसा कौन है जो इस संसार में अहंकारी न हुआ हो, ऐसा कौनसा व्यभिचारी है, जिसके पापो को परमात्मा ने नष्ट न कर दिया हो, इस पृथ्वी पर ऐसा कौन धीर पुरुष है, जिसका मन स्त्रियों के प्रति व्याकुल न हुआ हो, ऐसा कौन पुरुष है, जिसे मृत्यु ने न दबोचा हो, ऐसा कौन सा भिखारी है जिसे बड़प्पन मिला हो, ऐसा कौन सा दुष्ट है जो अपने सम्पूर्ण दुर्गुणों के साथ इस संसार से कल्याण-पथ पर अग्रसर हुआ हो।’