एक घने जंगल में देवदार का एक विशाल पेड़ था।
पेड़ की जड़ में ही एक छोटा से झरबेरी का पेड़ भी था। देवदार अपने लम्बेपन और उपयोगिता पर गर्व था। वैद्य व दूसने लोग आते और औशधियों के लिए उसके कोमल पत्ते तोड़कर ले जाते। जहाज बनाने और कारीगर भी उसका कुछ भाग काटकर ले जाते। यात्री तो उसकी छांव में बैठकर आराम करते ही थे। अपनी इस उपयोगिता के चलते वह बेहद घमंडी हो गया।
इसी कारण वह अपनी जड़ में उगे झरबेरी के कंटीले पेड़ को तिरस्कृत नजरों से देखा करता था।
वह अक्सर घमंड में भरकर कहता- ”मुझे देखो, मैं जंगल के सभी वृक्षों से ऊंचा हूं। मेरा सिर, जैसा तुम देख रहे हो, आकाश को छू रहा है। मैं बेहद उपयोगी हूं। मैं समुन्द्र में यात्रा करने वाले जहाजों पर ऊंचे मस्तूल का काम करता हूं। मैं महलों के निर्माण के लिए इमारती लकड़ी को काम करता हूँ। बीमार व्यक्तियों के लिए मेरे पत्तों का रस औषध का काम करता है। और तुम कंटीले वृक्ष… भला तुम्हारा क्या उपयोग है। तुम तो जमीन से ही चिपके रहते हो। तुम किसी काम के नहीं हो। अगर कोई तुम्हारे पास आकर खड़ा हो जाए तो तुम्हारे कांटे उसे चुभने लगते हैं।“
झरबेरी का पेड़ चुपचाप, शांत भाव से देवदार की बातें सुनता रहता, मगर कुछ कहता नहीं था। उसे सूझता ही नहीं था कि क्या कहूं और कैसे उसका घंमड तोडूं। एक बार जब देवदार ने उसे उसी प्रकार की जली-कटी सुनाई तो पहले तो वह खामोषी से सुनता रहा, फिर शांत स्वर में कहने लगा- ”सुनो देवदार, अगर तुममें दम्भ न होता तो मेरे लिए यही कहते कि मेरी भी कुछ न कुछ उपयोगिता तो है ही। यह सही है कि मैं छोटा और जमीन पर रेंगने वाले कीड़े जैसा तुच्छ हूं, मगर फिर भी तुमसे अधिक प्रभावशाली हूं। यदि अगली बार कोई लकड़हारा एक भारी कुल्हाड़ी लेकर जंगल के पेड़ काटने आए तो क्या तुम भगवान से यह प्रार्थना नहीं करोगे कि काश तुम भी मेरे जैसे छोटे कद के होते?“
शिक्षा – बड़ा वही है जो अपने से छोटों का भी सम्मान करता है।