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लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए

उन लोगों की बात करो जो इश्क़ में ख़ुश-अंजाम हुए
नज्द में क़ैस यहाँ पर ‘इंशा’ ख़ार हुए नाकाम हुए

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किस का चमकता चेहरा लाएँ किस सूरज से माँगें धूप
घूर अँधेरा छा जाता है ख़ल्वत-ए-दिल में शाम हुए

एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है
एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए

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शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए

उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या
जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए

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‘इंशा’-साहिब पौ फटती है तारे डूबे सुब्ह हुई
बात तुम्हारी मान के हम तो शब भर बे-आराम हुए

ऐ दिल वालो घर से निकलो – इब्न-ए-इंशा शायरी ग़ज़लें की ग़ज़लें

ऐ दिल वालो घर से निकलो देता दावत-ए-आम है चाँद
शहरों शहरों क़रियों क़रियों वहशत का पैग़ाम है चाँद

तू भी हरे दरीचे वाली आ जा बर-सर-ए-बाम है चाँद
हर कोई जग में ख़ुद सा ढूँडे तुझ बिन बसे आराम है चाँद

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सखियों से कब सखियाँ अपने जी के भेद छुपाती हैं
हम से नहीं तो उस से कह दे करता कहाँ कलाम है चाँद

जिस जिस से उसे रब्त रहा है और भी लोग हज़ारों हैं
एक तुझी को बे-मेहरी का देता क्यूँ इल्ज़ाम है चाँद

वो जो तेरा दाग़ ग़ुलामी माथे पर लिए फिरता है
उस का नाम तो ‘इंशा’ ठहरा नाहक़ को बदनाम है चाँद

हम से भी दो बातें कर ले कैसी भीगी शाम है चाँद
सब कुछ सुन ले आप न बोले तेरा ख़ूब निज़ाम है चाँद

हम इस लम्बे-चौड़े घर में शब को तन्हा होते हैं
देख किसी दिन आ मिल हम से हम को तुझ से काम है चाँद

अपने दिल के मश्रिक-ओ-मग़रिब उस के रुख़ से मुनव्वर हैं
बे-शक तेरा रूप भी कामिल बे-शक तू भी तमाम है चाँद

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तुझ को तो हर शाम फ़लक पर घटता-बढ़ता देखते हैं
उस को देख के ईद करेंगे अपना और इस्लाम है चाँद

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