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हमने सब शे’र में सँवारे थे – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी

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हमने सब शे’र में सँवारे थे – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी

हमने सब शे’र में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे

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रंगों ख़ुश्बू के, हुस्नो-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे

तेरे क़ौलो-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे

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जब वो लालो-गुहर हिसाब किए
जो तरे ग़म ने दिल पे वारे थे

मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्ते-फ़लक में तारे थे

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उम्रे-जावेद की दुआ करते थे
‘फ़ैज़’ इतने वो कब हमारे थे

हसरते दीद में गुज़राँ है ज़माने कब से – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी

हसरते दीद में गुज़राँ है ज़माने कब से
दशते-उमीद में गरदां हैं दिवाने कब से

देर से आंख पे उतरा नहीं अश्कों का अज़ाब
अपने जिंमे है तिरा कर्ज़ न जाने कब से

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किस तरह पाक हो बेआरज़ू लमहों का हिसाब
दर्द आया नहीं दरबार सजाने कब से

सुर करो साज़ कि छेड़ें कोई दिलसोज़ ग़ज़ल
‘ढूंढता है दिले-शोरीदा बहाने कब से

पुर करो जाम कि शायद हो इसी लहज़ा रवां
रोक रक्खा है इक तीर कज़ा ने कब से

‘फ़ैज़’ फिर किसी मकत्ल में करेंगे आबाद
लब पे वीरां हैं शहीदों के फ़साने कब से

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