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स्वामी दयानन्द सरस्वती पर निबंध – Swami Dayanand Essay in Hindi

स्वामी दयानन्द सरस्वती एक महान सुधारक थे। जिस समय पूरा भारत वर्ष अशिक्षा, अंधविश्वास और रूढ़िवादिता के अंधकर में डूबा हुआ था। उसी समय ज्योतिपुंज के रूप में दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। स्वामी दयानन्द ने हिन्दु धर्म को एक नया मोड़ दिया। उनके सद् उपदेशों से हिन्दू समाज में नयी चेतना का संचार हुआ। सन्त महात्माओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम अपने अनोखे व्यक्तित्व और बेमिसाल प्रभाव के कारण जन-जन के मन में आदरपूर्वक बसा हुआ है। स्वामी दयानन्द एक साथ ही आडम्बरों, अन्धविश्वासों और अमानवीय तत्त्वों का जमकर विरोध करते हुए मानवीय सहानुभूति का दिव्य सन्देश दिया। आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी की मान्यता देने के लिए स्वभाषा और जाति के स्वाभिमान को जगाया।

स्वामी दयानन्द का उदय हमारे देश में तब हुआ था जब चारों ओर से हमें विभिन्न प्रकार के संकटों और आपदाओं का सामना करना पड़ रहा था। उस समय हम विदेशी शासन की बागडोर से कस दिए गए और सब प्रकार के मूलाधिकारों से वंचित करके अमानवता के वातावरण में जीने के लिए बाध्य कर दिए गए थे। स्वामी दयानन्द जी ने अपने वातावरण, समाज और राष्ट्र सहित विश्व की इस प्रकार की मानवता विरोधी गतिविधियों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया और इन्हें जड़ से उखाड़ देने का दृढ़-संकल्प भी किया।

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Essay on Swami Dayanand in Hindiस्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 ई. को गुजरात में टंकारा नामक स्थान पर हुआ। इनके पिता श्री कर्षणजी लालजी तिवारी शिव के उपासक थे। अतः उन्होंने अपने पुत्र का नाम ‘मूल शंकर’ रखा। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा संस्कृत भाषा में घर पर ही हुई। आपने बारह वर्ष की उम्र तक संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।

एक बार शिवरात्रि के पर्व पर इन्होंने पिता के कहने से व्रत रखा। रात्रि में वह अपने पिता के साथ मंदिर गये। सभी भक्तगण कुछ देर के बाद ऊँघने लगे। बालक मूलशंकर ने देखा कि एक चूहा शिवलिंग पर चढ़ कर वहाँ रखी मिठाई खा रहा है। उनके मन में विचार आया कि जो शिवलिंग अपनी मिठाई की रक्षा नहीं कर सकता वह भक्तों की रक्षा कैसे करेगा। इस घटना ने उनके जीवन को एक नयी दिशा दी। बालक मूल शंकर सच्चे शिव की खोज में चल दिया।

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ठसके बाद चाचा व बहन की मृत्यु ने इनके मन में वैराग्य की भावना उत्पन्न कर दी। माता पिता द्वारा विवाह के लिये कहने पर बीस वर्ष की आयु में इन्होंने घर छोड़ दिया।

मथुरा में स्वामी जी को तत्कालीन महान् योगी और सन्स स्वामी विरजानन्द जी का सम्पर्क प्राप्त हुआ था। इनके निर्देशन में स्वामी जी ने लगभग 35 वर्षों तक वेदों का अध्ययन किया था। स्वामी विरजानन्द जी ने जब वह भलीभाँति सन्तोष प्राप्त कर लिया कि दयानन्द का अध्ययन, शिक्षा-दीक्षा पूर्ण हो चुकी है, तो उन्होंने अपने इस अद्भुत शिष्य को यह दिव्य आदेश दिया कि अब जाओ, और देश में फैले हुए समस्त प्रकार के अज्ञानान्धकार को दूर करो।’

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गुरु आदेश को शिरोधार्य करके दयानन्द जी इस महान् उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए सम्पूर्ण देश का परिभ्रमण करने लगे। देश के विभिन्न भागों में परिभ्रमण करते हुए स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापनाएँ कीं। अन्धविश्वासों और रूढियों का खण्डन करते हुए मूर्ति-पूजा-का खुल्लमखुल्ला विरोध किया। इसी सन्दर्भ में आपने एक महान् और सर्वप्रधान धर्मग्रन्थ ‘सत्यार्थ। प्रकाश’ को लिखी। इसके अतिरिक्त ‘ग्वेद की भूमिका’, ‘व्यवहार-भानु’, ‘वेदांग प्रकाश’ आपके श्रेष्ठ ग्रन्थ हैं।

स्वामी दयानन्द ने समाज से अज्ञानता, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास व कुरीतियों को मिटाने के लिये अथक प्रयास किये। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ एवं कई अन्य श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना की। उन्होंने मूर्ति पूजा एवं धर्म के नाम पर व्याप्त पाखंड का खंडन किया।

स्वामी जी का जीवनाधार ब्रह्मचर्य-बल था। स्वामी जी ने सुशील, बुद्धि-बल और पराक्रम युक्त दीर्घायु श्रीमान् संतान की उत्पत्ति इसी के द्वारा सम्भव कही थी। इसीलिए स्वामी जी ने पच्चीस वर्ष से पूर्व पुत्र का और सोलहवें वर्ष से पूर्व कन्या का विवाह न करने का सुझाव दिया था। स्वामी जी ने अपने भारत देश के प्रति अपार प्रेम-भक्ति को प्रकट करते हुए कहा था-“मैं देशवासियों के विकास के लिए। और संसार में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन प्रातःकाल और सायं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वह दयालु भगवान् मेरे देश को विदेशी शासन से शीघ्र मुक्त करें।

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स्वामी जी ने बाल-विवाह का कड़ा विरोध करते हुए इसे निर्बलता और तेजस्वहीनता का मुख्य कारण ही नहीं माना अपितु इसके द्वारा सामाजिक पतन के अन्तर्गत विधवापन का मूल कारण भी बताया, क्योंकि

बाल-विवाह अल्पायु में। होने के कारण शक्तिहीनता को जन्म देता है जिससे कम उम्र में मृत्यु हो जाना स्वाभाविक हो जाता है। इस बाल-विवाह की प्रथा पर रोक लगाने के सुझाव के साथ ही स्वामी जी ने विधवा-विवाह या पुनर्विवाह की जोरदार प्रथा चलाई थी।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए भरपूर कोशिश की। उनकी हिन्दी के प्रति अपार अनुराग और श्रद्धा थी। यद्यपि वे अहिन्दी भाषी थे, लेकिन उन्होंने संस्कृत भाषा और वैदिक धर्म को ऊँचा स्थान दिलाने के साथ हिन्दी को भी प्रतिष्ठित किया है। यही कारण है कि आर्य समाज की संस्थापना संस्थलों पर दयानन्द विद्यालय-महाविद्यालय भी भारतीय शिक्षा के प्रचार-प्रसार कार्य में लगे हुए हैं।

वास्तव में स्वामी दयानन्द सरस्वती एक युग पुरुष थे, जो काल पटल पर निरन्तर श्रद्धा के साथ स्मरण किए जाते रहेंगे। हमारा यह दुर्भाग्य ही था कि स्वामी जी को धर्म प्रचारार्थ जोधपुर नरेश के यहाँ एक वेश्याने प्रतिशोध की दुर्भावना से विषाक्त दूध पिला दिया जिससे उनकी लगभग 62 वर्ष की अल्पायु में सन् 1883 में मृत्यु हो गई।

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