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वक्रोक्ति अलंकार परिभाषा, भेद एवं उदाहरण Vakrokti Alankar in Hindi

वक्रोक्ति अलंकार Vakrokti Alankar

‘वक्रोक्ति’ का अर्थ है ‘वक्र उक्ति’ अर्थात ‘टेढ़ी उक्ति’। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।

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जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

वक्रोक्ति में चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

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वक्रोक्ति अलंकार का उदाहरण Example of Vakrokti Alankar in Hindi :-

एक कह्यौ ‘वर देत भव, भाव चाहिए चित्त’।
सुनि कह कोउ ‘भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त’ ।।

किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए ‘भाव चाहिये’ ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए ‘भाव’ की भी आवश्यकता नहीं।

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जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। ‘काकु’ और ‘श्लेष’ शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों में ‘वक्रोक्ति होने के कारण ‘श्लेष’ की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-
(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार
(2)
काकु वक्रोक्ति अलंकार

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(1) श्लेष वक्रोक्ति अलंकार Shlesh Vakrokti Alankar-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।

नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि ‘अपर’ अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने ‘अपर’ का अर्थ लगाया- ‘पर (पंख) से हीन’ और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i)
भंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार Bhangpad Shlesh Vakrokti Alankar
(ii)
अभंगपद श्लेष वक्रोक्ति अलंकार Abhangpad Shlesh Vakrokti Alankar

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण

पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने ‘गौरवशालिनी’ कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस ‘गौरवशालिनी’ सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का ‘गौरव’ देने के बजाय ‘गौ’ (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), ‘अवशा’ (लाचार), ‘अलिनी’ (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ”हाँ, तुम तो मुझे ‘गौरवशालिनी’ ही समझते हो !” अर्थात, ‘गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी’।

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”जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे ‘गौरवशालिनी’ कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता”- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद ‘गौरवशालिनी’ में दो अर्थ (एक ‘हे गौरवशालिनी’ और दूसरा ‘गौः, अवशा, अलिनी’) श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस ‘गौरवशालिनी’ पद को ‘गौः+अवशा+अलिनी’ में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण


एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, ‘अपर’ कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

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अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके ‘अपर’ (दूसरे) कबूतर को ‘अपर’ (बे-पर) के बजाय ‘सपर’ (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ ‘अपर’ शब्द को बिना तोड़े ही ‘दूसरा’ और ‘बेपरवाला’ दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2)काकु वक्रोक्ति अलंकार kaku Vakrokti Alankar – 

कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण


कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। तुलसीदास

रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद Vakrokti aur Shlesh mein bhed:- 

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

अलंकार की परिभाषा, भेद एवं उदाहरण

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