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तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम – अहमद फ़राज़ शायरी

तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम

तुझ से मिल कर भी कुछ ख़फ़ा हैं हम
बेमुरव्वत नहीं तो क्या हैं हम

हम ग़मे-क़ारवाँ में बैठे थे
लोग समझे शिकस्ता-पा हैं हम

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इस तरह से हमें रक़ीब मिले
जैसे मुद्दत के आश्ना हैं हम

राख हैं हम अगर ये आग बुझी
जुज़ ग़मे-दोस्त और क्या हैं हम

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ख़ुद को सुनते हैं इस तरह जैसे
वक़्त की आख़िरी सदा हैं हम

क्यों ज़माने को दें ‘फ़राज़’ इल्ज़ाम
वो नहीं हैं तो बे-वफ़ा हैं हम

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(बेमुरव्वत=निष्ठुर, ग़मे-क़ारवाँ=यात्री-दल
का दु:ख, शिकस्ता-पा=थके हुए, रक़ीब=
प्रतिद्वन्द्वी, आश्ना=परिचित, सदा=आवाज़)

तुझे उदास किया ख़ुद भी सोग़वार हुए

तुझे उदास किया ख़ुद भी सोगवार हुए
हम आप अपनी महब्बत में शर्मसार हुए

बला की रौ थी नदीमाने-आबला-पा को
पलट के देखना चाहा कि ख़ुद ग़ुबार हुए

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गिला उसी का किया जिससे तुझ पे हर्फ़ आया
वगरना यूँ तो सितम हम प’ बे-शुमार हुए

ये इंतकाम भी लेना था ज़िन्दगी को अभी
जो लोग दुश्मने-जाँ थे वो ग़मगुसार हुए

हज़ार बार किया तर्क़े-दोस्ती का ख़याल
मगर ‘फ़राज़’ पशेमाँ हरेक बार हुए

(नदीमाने-आबला-पा=पाँव के छाले वालों के
पास बैठने वाला, हर्फ़ आया=इल्ज़ाम आया,
वगरना=अन्यथा, इंतकाम=बदला, तर्क़े-दोस्ती=
मित्रता तोड़ना, पशेमाँ=लज्जित)

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