एक बार एक फाख्ता किसी बहेलिए के जाल में फंस गई। वह फड़फडाई और जाल से निकलने की भरसक कोशिश की, परंतु सफल नहीं हो सकी।
वह तरह-तरह की कल्पनाएं करने लगी। सबसे अधिक भयंकर कल्पना जो वह कर सकी, वह थी कि बहेलिया उसे जान से मार देगा। यह सोचकर वह बहुत उदास हो गई।
तभी उसने देखा कि बहेलिया उसकी ओर आ रहा था। वह भय से कांपनी लगी। डर के मारे उसका बुरा हाल हो रहा था।
जब बहेलिए ने उसे जाल से निकालकर अपने हाथ में लिया तो वह बोली- ”ओ बहेलिए! मैं एक मासूम पक्षी हूं। मैं किसी को हानि नहीं पहुंचाती, कृपया मुझे छोड़ दो।“
बहेलिया उसे टकटकी लगाकर देखने लगा।
दरअसल वह इतनी मासूम थी कि उसक अहित करने का ख्याल भी बहेलिए के मन में न था और मन ही मन वह सोच रहा था कि इस मासूम फाख्ता को छोड़ देना चाहिए।
जब बहेलिए ने उसकी बात का उत्तर नहीं दिया तो वह दोबारा बोली- ”श्रीमान! आप मुझ पर दया करें, बदले में मैं भी आपका फायदा करूंगी। यदि आप मुझे छोड़ देंगे तो मैं वादा करती हूं कि मैं सैकड़ों फाख्ता बुलाकर आपके जाल में फंसवा दूंगी।“
यह सुनकर वह बहेलिया गुस्से से लाल-पीला हो उठा। कहां तो वह उसे मासूम समझकर छोड़ना चाहता था और कहां उसकी ऐसी स्वार्थपूर्ण बात सुनकर वह क्रोधित होकर बोला- ”अब तुम्हारे छोड़ दिए जाने की आशा बहुत कम है। जो अपनी जान बचाने के लिए अपने सगे-संबंधियों की जान खतरे में डाल सकता है, वह दया का पात्र नहीं है।“
बहेलिया फाख्ता को घर ले आया और उसका भोजन बना कर खा गया।
निष्कर्ष- दूसरों की जान सांसत में डालकर अपना बचाव करना नीचता है।