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पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे– अहमद फ़राज़ शायरी

पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे

पयाम आए हैं उस यार-ए-बेवफ़ा के मुझे
जिसे क़रार न आया कहीं भुला के मुझे

जुदाइयाँ हों तो ऐसी कि उम्र भर न मिलें
फ़रेब दो तो ज़रा सिलसिले बढ़ा के मुझे

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नशे से कम तो नहीं याद-ए-यार का आलम
कि ले उड़ा है कोई दोश पर हवा के मुझे

मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहॉ वाले
उदास छोड़ गए आईना दिखा के मुझे

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तुम्हारे बाम से अब कम नहीं है रिफ़अत-ए-दार
जो देखना हो तो देखो नजर उठा के मुझे

खिंची हुई है मिरे आंसुओं में इक तस्वीर
‘फ़राज़’ देख रहा है वो मुस्कुरा के मुझे

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अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएं हम

अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएं हम
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएं हम

सहरा-ए-ज़िन्दगी में कोई दूसरा न था
सुनते रहे हैं आप ही अपनी सदाएं हम

इस ज़िन्दगी में इतनी फ़राग़त किसे नसीब
इतना न याद आ कि तुझे भूल जाएं हम

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तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक
आ तेरे रास्ते में सितारे लुटाएं हम

वो लोग अब कहां हैं जो कहते थे कल ‘फ़राज़’
है है ख़ुदा-न-कर्दा तुझे भी रुलाएं हम

फिर उसी राहगुज़र पर शायद – अहमद फ़राज़

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद

जान पहचान से ही क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद

जिन के हम मुन्तज़िर रहे उनको
मिल गये और हमसफ़र शायद

अजनबीयत की धुंध छंट जाए
चमक उठे तेरी नज़र शायद

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जिंदगी भर लहू रुलाएगी
यादे -याराने-बेख़बर शायद

जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं “अहमद फ़राज़”
फिर भी तू इन्तज़ार कर शायद

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