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न हरीफ़े जाँ न शरीक़े-ग़म शबे-इंतज़ार कोई तो हो – अहमद फ़राज़ शायरी

न हरीफ़े जाँ न शरीक़े-ग़म शबे-इंतज़ार कोई तो हो

न हरीफ़े-जाँ न शरीक़े-ग़म शबे-इन्तज़ार कोई तो हो
किसे बज़्मे-शौक़ में लाएँ हम दिले-बेक़रार कोई तो हो

किसे ज़िन्दगी है अज़ीज़ अब किसे आरज़ू-ए-शबे-तरब
मगर ऐ निगारे-वफ़ा- तलब तिरा एतिबार कोई तो हो

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कहीं तारे-दामने-गुल मिले तो य मान लें कि चमन खिले
कि निशान फ़स्ले-बहार का सरे-शाख़सार कोई तो हो

ये उदास-उदास-से बामो-दर, ये उजाड़-उजाड़-सी रहगुज़र
चलो हम नहीं न सही मगर सरे-कू-ए-यार कोई तो हो

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ये सुकूने-जाँ की घड़ी ढले तो चराग़े-दिल ही न बुझ चले
वो बला से हो ग़मे-इश्क़ या ग़मे-रोज़गार कोई तो हो

सरे-मक़्तले-शबे-आरज़ू रहे कुछ तो इश्क़ की आबरू
जो नहीं अदू तो ‘फ़राज़’ तू कि नसीबे-दार कोई तो हो

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(हरीफ़े-जाँ=जान के दुश्मन, बज़्म=सभा, निगारे-वफ़ा- तलब=
प्रेम-का पालन करने की आकांक्षा रखने वाली सुन्दरता,
तारे-दामने-गुल मिले=फूल की आँचल का तार, फ़स्ले-बहार=
वसंत ऋतु, बामो-दर=छत और द्वार, सरे-मक़्तले-शबे-आरज़ू=
आकांक्षाओं की रात्रि का वध-स्थल, अदू=शत्रु, नसीबे-दार=
सूली का भाग्य)

बहुत हसीन हैं तेरी अक़ीदतों के गुलाब

बहुत हसीन हैं तेरी अक़ीदतों के गुलाब
हसीनतर है मगर हर गुले-ख़याल तिरा

हर एक दर्द के रिश्ते में मुंसलिक दोनों
तुझे अज़ीज़ मिरा फ़न , मुझे जमाल तिरा

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मगर तुझे नहीं मालूम क़ुर्बतों के अलम
तिरी निगाह मुझे फ़ासलों से चाहती है

तुझे ख़बर नहीं शायद कि ख़िल्वतों में मिरी
लहू उगलती हुई ज़िन्दगी कराहती है

तुझे ख़बर नहीं शायद कि हम वहाँ हैं जहाँ
ये फ़न नहीं है अज़ीयत है ज़िंदगी भर की

यहाँ गुलू-ए-जुनूँ पर कमंद पड़ती है
यहाँ क़लम की ज़बाँ पर है नोंक ख़ंज़र की

हम उस क़बील-ए-वहशी के देवता हैं कि जो
पुजारियों की अक़ीदत से फूल जाते हैं

और एक रात के मा’बूद सुब्ह होते ही
वफ़ा-परस्त सलीबों पे झूल जाते हैं

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(मा’बूद=ईश्वर, अक़ीदतों=आस्थाओं, मुंसलिक=
पिरोए हुए,जुड़े हुए, जमाल=सौंदर्य, क़ुर्बतों=
सामीप्य, अलम=दु:ख, ख़िल्वतों=एकांतों,फ़न=
कला, अज़ीयत=यातना, गुलू-ए-जुनूँ=उन्माद के
गले, कमंद=फंदा, क़बील=क़बीले, वफ़ा-परस्त=
प्रेम-प्रतिज्ञा को पूजने वाले)

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