न दिल से आह न लब से सदा निकलती है – अहमद फ़राज़ शायरी
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है
सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही
तमाम ख़ल्क़ मिरी हम-नवा निकलती है
विसाल-ए-हिज्र की हसरत में जू-ए-कम माया
कभी कभी किसी सहरा में जा निकलती है
मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी
तिरे लिए मिरे दिल से दुआ निकलती है
वो ज़िंदगी हो कि दुनिया ‘फ़राज़’ क्या कीजे
कि जिस से इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है
तेरी बातें ही सुनाने आए, दोस्त भी दिल ही दुखाने आए
तेरी बातें ही सुनाने आए
दोस्त भी दिल ही दुखाने आए
फूल खिलते हैं तो हम सोचते हैं
तेरे आने के ज़माने आए
ऐसी कुछ चुप सी लगी है जैसे
हम तुझे हाल सुनाने आए
इश्क़ तन्हा है सर-ए-मंज़िल-ए-ग़म
कौन ये बोझ उठाने आए
अजनबी दोस्त हमें देख कि हम
कुछ तुझे याद दिलाने आए
दिल धड़कता है सफ़र के हंगाम
काश फिर कोई बुलाने आए
अब तो रोने से भी दिल दुखता है
शायद अब होश ठिकाने आए
क्या कहीं फिर कोई बस्ती उजड़ी
लोग क्यूँ जश्न मनाने आए
सो रहो मौत के पहलू में ‘फ़राज़’
नींद किस वक़्त न जाने आए