मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी
मेरा दर्द नग़मा-ए-बे-सदा
मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बे-निशाँ
मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले
मुझे अपना नामो-निशाँ मिले
मेरी ज़ात को जो निशाँ मिले
मुझे राज़े-नज़्मे-जहाँ मिले
जो मुझे ये राज़े-निहाँ मिले
मेरी ख़ामशी को बयाँ मिले
मुझे क़ायनात की सरवरी
मुझे दौलते-दो-जहाँ मिले
पाँवों से लहू को धो डालो – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी
हम क्या करते किस रह चलते
हर राह में कांटे बिखरे थे
उन रिश्तों के जो छूट गए
उन सदियों के यारानो के
जो इक इक करके टूट गए
जिस राह चले जिस सिम्त गए
यूँ पाँव लहूलुहान हुए
सब देखने वाले कहते थे
ये कैसी रीत रचाई है
ये मेहँदी क्यूँ लगवाई है
वो: कहते थे, क्यूँ कहत-ए-वफा
का नाहक़ चर्चा करते हो
पाँवों से लहू को धो डालो
ये रातें जब अट जाएँगी
सौ रास्ते इन से फूटेंगे
तुम दिल को संभालो जिसमें अभी
सौ तरह के नश्तर टूटेंगे
चलो फिर से मुस्कुराएं- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं
जो गुज़र गई हैं रातें
उनहें फिर जगा के लाएं
जो बिसर गई हैं बातें
उनहें याद में बुलाएं
चलो फिर से दिल लगाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं
किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी कबा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हरफ़े-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा
ये मिलन की, नामिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गई हैं रातें
जो बिसर गई हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएं
कोई इनका गीत गाएं
चलो फिर से मुस्कुराएं
चलो फिर से दिल जलाएं
हम तो मज़बूर थे इस दिल से – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी
हम तो मज़बूर थे इस दिल से कि जिसमें हर दम
गरदिशे-ख़ूं से वो कोहराम बपा रहता है
जैसे रिन्दाने-बलानोश जो मिल बैठें ब-हम
मयकदे में सफ़र-ए-जाम बपा रहता है
सोज़े-ख़ातिर को मिला जब भी सहारा कोई
दाग़े-हरमान कोई दर्द-ए-तमन्ना कोई
मरहमे-यास से मायल-ब-शिफ़ा होने लगा
ज़ख़्मे-उमीद कोई फिर से हरा होने लगा
हम तो मज़बूर थे इस दिल से कि जिसकी ज़िद पर
हमने उस रात के माथे पे सहर की तहरीर
जिसके दामन में अंधेरे के सिवा कुछ भी न था
हमने उस दश्त को ठहरा दिया फ़िरदौस नज़ीर
जिसमें जुज़ सनअते-ख़ूने-सरे-पा कुछ भी न था
दिल को ताबीर कोई और गवारा ही न थी
कुलफ़ते-ज़ीसत तो मंज़ूर थी हर तौर मगर
राहते-मरग किसी तौर गवारा ही न थी