नई दिल्ली: आशा के अनुरूप अमित शाह निर्विरोध भाजपा के दुबारा अध्यक्ष चुने गए हैं. लेकिन उनकी दूसरी पारी पहली की तरह आसान नहीं नज़र आती. इस में कोई शक नहीं कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का आशीर्वाद उनके सर पर है और साथ ही संघ भी उनके समर्थन में है किन्तु आगे आने वाले समय में उनके सामने अनेकों चुनौतियां आने वाली हैं. आइये, आपको बताते हैं कौन से कांटे बिछे हैं अमित शाह की भाजपा अध्यक्ष की दूसरी इनिंग्स में!
मुश्किल खड़ी कर गई है दिल्ली और बिहार में भाजपा की हार
जहाँ लोकसभा चुनावों में जबरदस्त जीत का सेहरा अमित शाह के सर बंधा था वहीँ उसके बाद हरयाणा और जम्मू कश्मीर में पार्टी की शानदार परफॉरमेंस से अमित शाह का राजनीतिक ग्राफ चढ़ता जा रहा था . लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली और नीतीश-लालू ने बिहार में भाजपा को परास्त कर दिया तो अमित शाह के सांगठनिक कौशल और चुनावी रणनीति पर सवाल उतहने लगे हैं. दिल्ली और बिहार में विरोधियों द्वारा परास्त किए जाने के बाद पार्टी के कुछ पुराने नेताओं ने देश में पार्टी के भविष्य को लेकर नकारात्मक संकेत दिए हैं। इन चुनावों में हार ने इन वरिष्ठ नेताओं के अंदर शाह की सांगठनिक क्षमताओं और उन्हें एक जबरदस्त नेता के तौर पर देखने को लेकर सशंकित कर दिया है। हार की इन घटनाओं ने पार्टी के कई नेताओं व मंत्रियों को शाह के अध्यक्ष पद पर आने को लेकर गंभीरता से सोचने पर मजबूर कर दिया है। उनका यकीन शाह से कहीं ज्यादा अब चुनावी राज्यों के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं पर हो गया है। ऐसे में एक सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या अमित शाह अपने काम करने के तरीके में कोई बदलाव लेकर आएंगे?
भाजपा की ब्राह्मण-बनिया समर्थक छवि से हो रहा है नुकसान
लंबे समय बाद बीजेपी एक बार फिर से ब्राह्मण और बनिया की जाति आधारित राजनीति में उलझ चुकी है। सर्वोच्च पदों पर बैठे इसके नेताओं के बीच सामाजिक स्तर पर बंटे इस वर्गवाद का असर साफ देखने को मिल रहा है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में पार्टी में जातिवाद उच्च स्तर पर देखा जा सकता है। ओबीसी और दलित ही नहीं, बीजेपी की इस ब्राह्मण और बनिया नीति की मार भी कुछ उच्च जाति से जुड़े नेताओं पर भारी पड़ती दिख रही है।
यूपी और पंजाब चुनाओं में दांव पर लगी है प्रतिष्ठा, हुई हार तो अस्त हो सकता है सितारा
दिल्ली और बिहार में मिली हार के बाद पार्टी बड़ी ही व्याकुलता के साथ एक अदद जीत के इंतजार में बैठी है। अमित शाह की लगातार जीत को उनकी कुशलता और क्षमता से जोड़ना अब किसी सुखद स्वप्न सा लगने लगा है। पश्चिम बंगाल, असम, केरल और पंजाब में जल्द ही होने वाले चुनावों में भी उनकी यह छवि लौट आए, ऐसी कोई बात नजर नहीं आती लेकिन इसे यह कहकर दिखा दिया जाएगा कि इन राज्यों में पार्टी की हालत कुछ खास नहीं है या यूं कहें कि पार्टी के लिए ये राज्य फेवरेबल नहीं हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश के लिए ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों ने यहां 80 में से 73 सीटें जीती थीं। इससे यह बात सामने आती है कि पार्टी देश के सबसे बड़े राज्य में अपना जनाधार खो रही है। 2017 में यूपी में होने वाले चुनावों में पार्टी अगर कुछ बेहतर नहीं कर पाई तो शाह को अध्यक्ष बनाना पार्टी को महंगा मालूम पड़ सकता है।