एक बार एक उकाब किसी जंगल की ओर से उड़ता हुआ आया। उसके पंजों में एक काला सांप दबा हुआ था। उकाब एक बड़ी सी चट्टान के ऊपर अपने पंख फड़फड़ा कर उड़ने लगा। कुछ देर बाद वह उसी चटृान पर उतर गया ताकि वह सांप को एकान्त में निश्चिन्त होकर खा सके।
तभी कहीं से एक तीर सनसनाता हुआ आया और उकाब के शरीर में प्रविष्ट हो गया। उकाब दर्द से छटपटाता हुआ चटृान से नीचे लुढ़क गया। सांप उसके चंगुल से छूटकर दूर जा गिरा।
उकाब पीठ के बल गिरा हुआ अंतिम सांसें गिन रहा था। उसने अपने शरीर में घुसे तीर को देखकर सोचा- ”कितने दुख की बात है? मैं इस सांप से भी सुरक्षित रहा, जबकि यह चाहता तो मुझे डस सकता था। मगर यह तीर, जिसके कारण मैं जीवन की अंतिम घडि़यां गिन रहा हूं, इसमें लगे हुए पंख तो मेरे ही पंखों से बनाए गए हैं।“
ऐसा सोचते हुए, उकाब ने अंतिम सांसें लीं।
शिक्षा – अपनी ही बनाई हुई किसी वस्तु से अपनी ही बरबादी देखकर बहुत दुख होता है।