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किस शहर न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी

किस शहर न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का – फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी

किस शहर न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का
किस पर न खुला राज़ परीशानी-ए-दिल का

आयो करें महफ़िल पे ज़रे-ज़ख़्म नुमायां
चर्चा है बहुत बे-सरो-सामानी-ए-दिल का

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देख आयें चलो कूए-निगारां का ख़राबा
शायद कोई महरम मिले वीरानी-ए-दिल का

पूछो तो इधर तीरफ़िगन कौन है यारो
सौंपा था जिसे काम निगहबानी-ए-दिल का

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देखो तो किधर आज रुख़े-बादे-सबा है
किस रह से पयाम आया है ज़िन्दानी-ए-दिल का

उतरे थे कभी ‘फ़ैज़’ वो आईना-ए-दिल में,
आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का

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कुछ पहले इन आँखों आगे क्या-क्या न नज़ारा गुज़रे था- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शायरी

कुछ पहले इन आँखों आगे क्या-क्या न नज़ारा गुज़रे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था

थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फ़ुर्सत थी
सब पूछें थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था

अबके तो ख़िज़ाँ ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गए
जब मौसमे-गुल हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुज़रे था

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थी यारों की बुहतात तो हम अग़यार से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था

अब तो हाथ सुझाइ न देवे लेकिन अब से पहले तो
आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था

 

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