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कैफी आज़मी Shayari in Hindi दाएरा (रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे)

Kaifi Azmi shayari – Daayra (roj badhta hoon jahaan se aage)

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ
बार-हा तोड़ चुका हूँ जिन को
उन्हीं दीवारों से टकराता हूँ

रोज़ बसते हैं कई शहर नए
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गर्मी
वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं

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जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब
कितने अरमान हैं किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब

नब्ज़ बुझती भी भड़कती भी है
दिल का मामूल है घबराना भी
रात अन्धेरे ने अन्धेरे से कहा
एक आदत है जिए जाना भी

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क़ौस इक रंग की होती है तुलू
एक ही चाल भी पैमाने की
गोशे-गोशे में खड़ी है मस्जिद
शक्ल क्या हो गई मय-ख़ाने की

कोई कहता था समुन्दर हूँ मैं
और मिरी जेब में क़तरा भी नहीं
ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ
अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं

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अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ
कभी क़ुरआँ कभी गीता की तरह
चन्द रेखाओं में सीमाओं में
ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह

राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश रावण ही कोई आ जाता

कैफी आज़मी के ये बेहतरीन 25 शेर आपके दिल को गहराइयों तक छू लेंगे

Kaifi Azmi Poetry – Daayra (roj badhta hoon jahaan se aage)

roj badhta hoon jahaan se aage
fir vahin laut ke a jaata hoon
baar-ha tod chuka hoon jin ko
unhin divaaron se takaraata hoon

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roj basate hain kai shahar nae
roj dharati men sama jaate hain
jlajlon men thi jra si garmi
vo bhi ab roj hi a jaate hain

jism se rooh talak ret hi ret
n kahin dhoop n saaya n saraab
kitane aramaan hain kis sahara men
kaun rakhata hai majaaron ka hisaab

nabj bujhati bhi bhadkati bhi hai
dil ka maamool hai ghabaraana bhi
raat andhere ne andhere se kahaa
ek aadat hai jie jaana bhi

kaus ik rang ki hoti hai tuloo
ek hi chaal bhi paimaane ki
goshe-goshe men khadi hai masjid
shakl kya ho gai may-khaane ki

koi kahata tha samundar hoon main
aur miri jeb men ktara bhi nahin
khairiyat apani likha karata hoon
ab to takdir men khtara bhi nahin

apane haathon ko padha karata hoon
kabhi kuraan kabhi gita ki tarah
chand rekhaaon men simaaon men
jindagi kaid hai sita ki tarah

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raam kab lautenge maaloom nahin
kaash raavan hi koi a jaataa

Kaifi Azmi – Daayra (in Urdu) (roj badhta hoon jahaan se aage)

روزَ بَڑھَتا ہُوں جَہاں سے آگے
پھِرَ وَہِیں لَوٹَ کے آ جاتا ہُوں
بارَ-ہا توڑَ چُکا ہُوں جِنَ کو
اُنْہِیں دِیواروں سے ٹَکَراتا ہُوں

روزَ بَسَتے ہَیں کاِی شَہَرَ ناے
روزَ دھَرَتِی میں سَما جاتے ہَیں
زَلَزَلوں میں تھِی زَرا سِی گَرْمِی
وو بھِی اَبَ روزَ ہِی آ جاتے ہَیں

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جِسْمَ سے رُوہَ تَلَکَ ریتَ ہِی ریتَ
نَ کَہِیں دھُوپَ نَ سایا نَ سَرابَ
کِتَنے اَرَمانَ ہَیں کِسَ سَہَرا میں
کَونَ رَکھَتا ہَے مَزاروں کا ہِسابَ

نَبْزَ بُجھَتِی بھِی بھَڑَکَتِی بھِی ہَے
دِلَ کا مامُولَ ہَے گھَبَرانا بھِی
راتَ اَنْدھیرے نے اَنْدھیرے سے کَہا
ایکَ آدَتَ ہَے جِئے جانا بھِی

قَوسَ اِکَ رَںگَ کِی ہوتِی ہَے تُلُو
ایکَ ہِی چالَ بھِی پَیمانے کِی
گوشے-گوشے میں کھَڑِی ہَے مَسْجِدَ
شَکْلَ کْیا ہو گاِی مَیَ-خانے کِی

کوئی کَہَتا تھا سَمُنْدَرَ ہُوں مَیں
اَورَ مِرِی جیبَ میں قَتَرا بھِی نَہِیں
خَیرِیَتَ اَپَنِی لِکھا کَرَتا ہُوں
اَبَ تو تَقَدِیرَ میں خَتَرا بھِی نَہِیں

اَپَنے ہاتھوں کو پَڑھا کَرَتا ہُوں
کَبھِی قُرَآں کَبھِی گِیتا کِی تَرَہَ
چَنْدَ ریکھاءاوں میں سِیماءاوں میں
زِنْدَگِی قَیدَ ہَے سِیتا کِی تَرَہَ

رامَ کَبَ لَوٹیںگے مالُومَ نَہِیں
کاشَ راوَنَ ہِی کوئی آ جاتا

Kaifi Azmi – Daayra (in Punjabi) (roj badhta hoon jahaan se aage)

ਰੋਜ ਬਢਤਾ ਹੂ ਜਹਾ ਸੇ ਆਗੇ
ਫਿਰ ਵਹੀੰ ਲੌਟ ਕੇ ਆ ਜਾਤਾ ਹੂ
ਬਾਰ-ਹਾ ਤੋਡ ਚੁਕਾ ਹੂ ਜਿਨ ਕੋ
ਉਨ੍ਹੀੰ ਦੀਵਾਰੋੰ ਸੇ ਟਕਰਾਤਾ ਹੂ

ਰੋਜ ਬਸਤੇ ਹੈੰ ਕਈ ਸ਼ਹਰ ਨਏ
ਰੋਜ ਧਰਤੀ ਮੇੰ ਸਮਾ ਜਾਤੇ ਹੈੰ
ਜਲਜਲੋੰ ਮੇੰ ਥੀ ਜਰਾ ਸੀ ਗਰ੍ਮੀ
ਵੋ ਭੀ ਅਬ ਰੋਜ ਹੀ ਆ ਜਾਤੇ ਹੈੰ

ਜਿਸ੍ਮ ਸੇ ਰੂਹ ਤਲਕ ਰੇਤ ਹੀ ਰੇਤ
ਨ ਕਹੀੰ ਧੂਪ ਨ ਸਾਯਾ ਨ ਸਰਾਬ
ਕਿਤਨੇ ਅਰਮਾਨ ਹੈੰ ਕਿਸ ਸਹਰਾ ਮੇੰ
ਕੌਨ ਰਖਤਾ ਹੈ ਮਜਾਰੋੰ ਕਾ ਹਿਸਾਬ

ਨਬ੍ਜ ਬੁਝਤੀ ਭੀ ਭਡਕਤੀ ਭੀ ਹੈ
ਦਿਲ ਕਾ ਮਾਮੂਲ ਹੈ ਘਬਰਾਨਾ ਭੀ
ਰਾਤ ਅਨ੍ਧੇਰੇ ਨੇ ਅਨ੍ਧੇਰੇ ਸੇ ਕਹਾ
ਏਕ ਆਦਤ ਹੈ ਜਿਏ ਜਾਨਾ ਭੀ

ਕੌਸ ਇਕ ਰੰਗ ਕੀ ਹੋਤੀ ਹੈ ਤੁਲੂ
ਏਕ ਹੀ ਚਾਲ ਭੀ ਪੈਮਾਨੇ ਕੀ
ਗੋਸ਼ੇ-ਗੋਸ਼ੇ ਮੇੰ ਖਡੀ ਹੈ ਮਸ੍ਜਿਦ
ਸ਼ਕ੍ਲ ਕ੍ਯਾ ਹੋ ਗਈ ਮਯ-ਖਾਨੇ ਕੀ

ਕੋਈ ਕਹਤਾ ਥਾ ਸਮੁਨ੍ਦਰ ਹੂ ਮੈੰ
ਔਰ ਮਿਰੀ ਜੇਬ ਮੇੰ ਕਤਰਾ ਭੀ ਨਹੀੰ
ਖੈਰਿਯਤ ਅਪਨੀ ਲਿਖਾ ਕਰਤਾ ਹੂ
ਅਬ ਤੋ ਤਕਦੀਰ ਮੇੰ ਖਤਰਾ ਭੀ ਨਹੀੰ

ਅਪਨੇ ਹਾਥੋੰ ਕੋ ਪਢਾ ਕਰਤਾ ਹੂ
ਕਭੀ ਕੁਰਆ ਕਭੀ ਗੀਤਾ ਕੀ ਤਰਹ
ਚਨ੍ਦ ਰੇਖਾਓੰ ਮੇੰ ਸੀਮਾਓੰ ਮੇੰ
ਜਿਨ੍ਦਗੀ ਕੈਦ ਹੈ ਸੀਤਾ ਕੀ ਤਰਹ

ਰਾਮ ਕਬ ਲੌਟੇੰਗੇ ਮਾਲੂਮ ਨਹੀੰ
ਕਾਸ਼ ਰਾਵਣ ਹੀ ਕੋਈ ਆ ਜਾਤਾ

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