कबीरदास बाल्यावस्था से ही विलक्षण बुद्धि थे। उनकी प्रत्येक बात तर्कपूर्ण व सत्य होती थी, इसीलिए वह गुरू रामानंदजी को प्रिय थे।
यह किस्सा तब का है जब श्राद्ध पक्ष चल रहा था और रामानंदजी को अपने पितरों को श्राद्ध करना था।
ऐसा माना जाता है कि पितरों की पसंद की चीजें श्राद्ध में बनाई जाएं तो पितर संतुष्ट होते हैं। इसलिए रामानंदजी ने कबीरदास को कहा, ‘जाओ, गाय का दूध ले आओ।’
क्बीरदास दूध लेने चले। मार्ग में एक मृत गाय पड़ी थी। उन्होंने घास को उस मृत गाय के आगे रखा और दूध के लिए पात्र लेकर वहीं खड़े रहे।
श्राद्ध का समय निकला जा रहा था। जब कबीरदास दूध लेकर गुरू के पास नहीं पहुंचे, तब रामानंदजी अपने अन्य शिष्यों के साथ उन्हें ढूंढ़ने चले। मार्ग में उन्हें मृत गाय के पास कबीरदास खड़े दिखाई दिए। उन्होंने पूछा, ‘तुम यहां क्यों खड़े हो?’
कबीरदास बोले, ‘गुरूदेव! यह गाय न तो घास चर रही है और न ही दूध दे रही है।
इतना सुनकर रामानंदजी ने कबीरदास के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘पुत्र! मृत गाय भी कहीं घास चरकर दूध दे सकती है?’
कबीरदास ने तुरंत प्रतिप्रश्न किया, ‘तब आपके वह पूर्वज जो वर्षों पूर्व मृत हो चुके हैं, दुग्धपान कैसे कर सकते हैं?
रामानंदजी अपने शिष्य की तर्कपूर्ण बात सुनकर मोन हो गए और उन्हें हदय से लगा लिया।