दिन चढे सूरज बन जाती दिन भर चलती जाती हो
दिन ढले पर तुम ना रूकती कुछ कुछ करती जाती हो
सूरज चंदा सब थक जाते पर तुम क्यों ना थक पाती हो
तुम को नींद नही आती माँ हर आहट पर जग जाती हो
पापा मेरे कुल के दीपक, तुम उस दीपक की बाती हो
घर मे कही अंधेरा ना हो,हर पल जलती जाती हो
पल भर भी आराम किये बिन तुम सब कैसे कर पाती हो
सच बताना माँ तुम इतनी हिम्मत कहाँ से लाती हो।।
अपनो का पेट भरे पहले तुम खाना भी ना खाती हो
‘मुझको भूख नहीं है’ कहकर भूखी ही रह जाती हो
इतना कठिन परिश्रम करके भूख प्यास सह जाती हो
शायद इसीलिये तो माँ तुम अन्नपूर्णा कहलाती हो
मुख पर होती है मुस्कान तुम कैसे ये कर पाती हो
कोई कैसा भी हो सब पर प्रेम सुधा बरसाती हो
कोई नही है सानी तेरा पर्वत भी चढ जाती हो
सच बताना माँ तुम इतनी हिम्मत कहाँ से लाती हो
तुम कोई जादूगरनी हो माँ सब संकट हर लेती हो
कितना भी हो काम पड़ा तुम मिनटों में कर लेती हो
निज इच्छा निज स्वप्न छोड़ बस एक गृहिणी बन जाती हो
करूणा की मूरत हो तुम देवी स्वरूपा बन जाती हो
कोई नहीं है तुम जैसा माँ तुम ही ये सब कर पाती हो
मुझको भी जरा पता तो दे दो,इतनी हिम्मत जहां से लाती हो
कोई मुश्किल आती हम पर, तुम बन के घटा छा जाती हो
भटके जब भी राह कोई तुम सही राह दिखलाती हो
आंधी तूफां के आगे तुम पर्वत सी तन जाती हो
अंधियारा हो जीवन मे,तुम नई किरण बन जाती हो
लेकर इतने घाव जो दिल मे तुम कैसे मुस्काती हो
सच बताना माँ तुम इतनी हिम्मत कहां से लाती हो
अपनो की छोटी सी खुशी मे तुम कैसे खिल जाती हो
जरा जरा सी बात पे तुम आंखो से नीर बहाती हो
प्रेम,दया और त्याग, तपस्या की तुम अद्भुत थाती हो
लाती हो वो शब्द कहां से जिनसे हमे समझाती हो
सीधी सादी सी हो फिर भी दिल मे घर कर जाती हो
नमन तुम्हे माँ तुम इतनी हिम्मत जहां से लाती हो
कविता – निधि बंसल